इस्लाम का वास्तविक पुरातन यतार्थ
प्राचीन कालीन अरबों के प्रधान तीर्थ मक्का का भी बहुत सुन्दर वर्णन किया गया है। शायर-उल-ओकुल की भूमिका में मक्का में प्रतिवर्ष महाशिवरात्रि के अवसर पर आयोजित होने वाले वार्षिक मेले "ओकाज़" का वर्णन है। स्मरण रहे, वर्तमान प्रचलित वार्षिक हज-यात्रा भी कोई इस्लामी विशेषता नहीं है, अपितु प्रागैस्लामी "ओकाज" (धार्मिक मेला) का ही परिवर्तित रूप है।
इस मेले का मुख्य आकर्षण मक्का के मुख्य मन्दिर मक्केश्वर महादेव (अब ‘अल-मस्जि़द-अल-हरम') के प्रांगण में होने वाला एक सारस्वत कवि सम्मेलन था, जिसमें सम्पूर्ण अर्वस्थान से आमन्त्रित कवि काव्य पाठ करते थे। ये कविताएँ पुरस्कृत होती थीं। सर्वप्रथम कवि की कविता को स्वर्ण पत्र पर उत्कीर्ण कर मक्केश्वर महादेव मन्दिर के परमपावन गर्भगृह में लटकाया जाता था। द्वितीय और तृतीय स्थान प्राप्त कविताओं को क्रमशः ऊँट और भेड़/बकरी के चमड़े पर निरेखित कर मन्दिर की बाहरी दीवारों पर लटकाया जाता था। इस प्रकार अरबी साहित्य का अमूल्य संग्रह हजारों वर्षों से मन्दिर में एकत्र होता चला आ रहा था। यह ज्ञात नहीं है कि यह प्रथा कब प्रारम्भ हुई थी, परन्तु पैगम्बर के जन्म से २३-२४ सौ वर्ष पुरानी कविताएँ उक्त मन्दिर में विद्यमान थीं।
६३० ई. में मोहम्मद साहब की इस्लामी सेना द्वारा मक्का पर की गयी चढ़ाई के समय उनकी सेना ने ये स्वर्ण-प्रशस्तियाँ लूट लीं और शेष में से अधिकांश को नष्ट कर दिया। जिस समय इन्हें लूटा जा रहा था, उस समय स्वयं मोहम्मद साहब का एक सिपहसालार शायर “हसन-बिन-साबिक” ने नष्ट की जा रही कविताओं में से कुछ को अपने कब्ज़े में कर लिया। इस संग्रह में ५ स्वर्ण-पत्रों व १६ चमड़े पर निरेखित कविताएँ थीं। साबिक की तीन पीढियों ने उन कविताओं को सुरक्षित रखा। तीसरी पीढ़ी का उत्तराधिकारी पुरस्कृत होने की आशा से इन कविताओं को मदीने से बगदाद, वहाँ के ख़लीफ़ा और संस्कृति के महान संरक्षक हारून-अल-रशीद के पास ले गया। जहाँ उसे खलीफा के दरबारी कवि 'अबू-अमीर-अब्दुल-अस्मई' ने विपुल धनराशि देकर खरीद लिया।
उन ५ स्वर्ण-पत्रों में से दो पर प्रागैस्लामी अरबी शायरों "अमर-इब्न-ए-हिशाम" और "लबी-बिन-ए-अख़्तर-बिन-ए-तुर्फा" की कविताएँ उत्कीर्ण थीं। साहित्य प्रेमी हारून-अल-रशीद ने अस्मई को ऐसी समस्त पूर्वकालीन और वर्तमान कवियों के व्यक्तित्व एवं कृतित्व को संकलित करने का आदेश दिया, जिसे अरब का विशालतम काव्य संग्रह कहा जा सके। उसी का परिणाम है "शायर-उल-ओकुल" का संकलन। शेष ३ पर उत्कीर्ण कविताएँ जर्हम बिन्तोई नामक कवि की थीं, जो मोहम्मद साहब से १६५ वर्ष पूर्व मक्का के प्राचीन जर्हम राजकुल में पैदा हुआ था। इस कुल के १२ शासकों ने मक्का पर ७४ ई.पू. से २०६ ई. तक शासन किया था।
कवि हृदय होने के कारण स्वयं को मक्का पर शासन करने का अवसर कभी प्राप्त नहीं हुआ, तथापि उसे स्मरण था कि उसके पूर्वजों के शासनकाल में ही एक समय भारतीय सम्राट विक्रमादित्य ने अर्वस्थान से सांस्कृतिक-राजनैतिक संबंध स्थापित किया था। इसलिए बिन्तोई ने अपनी एक कविता में विक्रमादित्य के प्रति अपनी हार्दिक कृतज्ञता व्यक्त की। राजकुल से संबंधित होते हुए भी बिन्तोई एक उच्च कोटि का कवि था। उसे ओकाज मेले में आयोजित होने वाले कवि सम्मेलन में सर्वश्रेष्ठ कविताओं के लिए प्रथम पुरस्कार लगातार तीन वर्षों तक मिला था। बिन्तोई की वे तीनों कविताएँ स्वर्ण-पत्र पर उत्कीर्ण हो वर्षों तक मक्केश्वर महादेव मन्दिर के गर्भगृह में टंगी रहीं। उन्हीं में से एक में अरब पर पितृसदृश शासन के लिए उज्जयिनी नरेश शकारि विक्रमादित्य का यशोगान किया गया है।
इत्रश्शफ़ाई सनतुल बिकरमातुन फ़हलमिन ।
क़रीमुन यर्तफ़ीहा वयोवस्सुरू ।।१।।
अर्थ- वे लोग धन्य हैं, जो राजा विक्रमादित्य के साम्राज्य में उत्पन्न हुये, जो दानवीर, धर्मात्मा और प्रजावत्सल था।
बिहिल्लाहायसमीमिन इला मोतक़ब्बेनरन ।
बिहिल्लाहा यूही क़ैद मिन होवा यफ़ख़रू ।।२।।
अर्थ- उस समय हमारा देश (अरब) ईश्वर को भूलकर इन्द्रिय सुख में लिप्त था। छल-कपट को ही हम लोगों ने सबसे बड़ा गुण मान रखा था। हमारे सम्पूर्ण देश पर अज्ञानता ने अन्धकार फैला रखा था।
फज़्ज़ल-आसारि नहनो ओसारिम बेज़ेहलीन ।
युरीदुन बिआबिन क़ज़नबिनयख़तरू ।।३।।
अर्थ- जिस प्रकार कोई बकरी का बच्चा किसी भेडिए के चंगुल में फँसकर छटपटाता है, छूट नहीं सकता, उसी प्रकार हमारी मूर्ख जाति मूर्खता के पंजे में फँसी हुई थी।
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