श्री राजा रामचन्द्र के अंत की व्यथा

सरयू कितनी विचलित हो सकती थी? इतनी तो नहीं कि अयोध्या के नींद में अड़चन पड़े, परंतु अयोध्या के महाराज आज लगातार तीसरी रात गुप्तार घाट पे विराजमान थे।

आधी रात बीतने को आयी थी। चंद्रमा अपने अर्द्ध आकार में श्री रामचंद्र के मस्तिष्क के ठीक ऊपर आकाश में सुसज्जित था। पूरा नगर किसी मृत प्रदेश के भाँति शांत पड़ा हुआ था। अगर शांति में कहीं विघ्न थी भी तो वो दूर कहीं मद्धम आवाज़ में आती नगर द्वारपाल की "जागते रहो" उवाच से या फिर सरयू की व्यथित लहरों से जो बारम्बार अपने आवेग में घाट पे बैठें रामचंद्र के चरणों को भिगो जाती।

राम को सरयू से अथाह लगाव था और गुप्तार घाट से सरयू उन्हें किसी साथी जैसी प्रतीत होती थी। ये वर्षों का साथ था। पूर्व में जब भी राम गुरुकुल से अयोध्या लौटते तो भविष्य की योजनाओं का प्रारूप बनाते हुए नगर से दूर कई रातें उनकी यहीं बीतती लेकिन आज राम योजनाओं के साथ नहीं आये थे। आज राम अपनी व्यथाओं के साथ आये थे।

घाट पे बैठे-बैठे श्री राम अयोध्या को भरपूर निहार रहे थे। यही अयोध्या जहाँ उन्होंने ने जन्म पाया, बालपन बिताया। जहां की गलियों में लक्ष्मण संग किशोरावस्था कटा यही अयोध्या जहां सीता को ब्याह कर लाये..

"सीता.."

आंखों को बंद कर के खोलते हुए राम ने सरयू की लहरों को देखा, "क्या सरयू उनकी व्यथा समझती होगी, क्या संसार उनकी व्यथा समझ पायेगा?"

दोनों हाथों को पीछे की तरफ़ ले जा कर, हथेलियों को घाट की सीढ़ी पे टिकाये राम आकाश को लंबे समय तक घूरते रहे। अयोध्या कहीं पीछे छूट गया, सोच के केंद्र में अब सीता थी। वही सीता जिनके लिए वो प्रभु शिव के धनुष को ललकार आये थे, वही सीता जिन्हें वो मिथला से ब्याह लाये थे। वही सीता जिनके साथ वनवास के 13 वर्ष बीते, वही सीता जिन्हें वो सुख के क्षण की स्मृति के बजाये दुःख से भरे क्षणों की स्मृति ज्यादा दे पाये। वही सीता जो इतने कष्ट के उपरांत भी उनके साथ किसी परछाई के जैसे लिपटी रही।

"क्या सीता उन्हें समझ पायी थी? क्या संसार उन्हें इस कलंक से मुक्त कर पायेगा की प्रजा के सुख के लिए, अपने सबसे बड़े योजना 'रामराज्य' के लिए उन्होंने अपनी गर्भवती पत्नी को त्याग कर वन-वन भटकने के लिए छोड़ दिया था?"

एक लंबी सांस लेते हुए राम ने अपनी आंखें बंद कर ली। आज चाँद की शीतलता भी यज्ञ की धधकती अग्नि प्रतीत हो रही थी । सरयू अभी भी अपने पूरे आवेग में थी और उतना ही व्यथित श्री रामचन्द्र का मन।

"क्या संसार समझ पायेगा की इन सब के मूल में एक ऐसी योजना थी जिसमें नियम और क़ानून का पालन सबसे प्रमुख विषय था। ऐसी शाषण व्यवस्था जिसमें राजा का उत्तरदायित्व प्रजा के प्रति किसी सेवक की तरह रहे, जहां प्रजा और राजा एक समान नियम-कानून का पालन करे। क्या सम्पूर्ण संसार ये समझ पायेगा की उनके जीवन का सबसे बड़ा, सबसे प्रमुख उद्देश्य केवल 'रामराज्य' था, जिसपे उन्होंने वर्षो पहले चलना शुरू कर दिया था। क्या आरोप मढ़ने वाले ये सोच पायेंगे कि सिर्फ़ वचन पालन के लिए उन्होंने अपने जन्मदाता, अपने पिता का बलिदान दिया था। राजभवन की तमाम सुखों को ठुकराते हुए 14 वर्ष वन में काटा था। नहीं! वो कभी नहीं समझ पायेंगे कि सत्य व नियम के मार्ग पे त्याग सिर्फ़ सीता का ही नहीं हुआ था, बलिदान उस पिता का भी था जिन्हें उनसे प्राणों से ज्यादा प्रेम था। उस छोटे भाई लक्ष्मण का भी हुआ है जो बालावस्था से किसी सेवक, रक्षक, परछाई के भांति उनके

साथ रहा.."

आंखों के कोरो को उंगलियों से पोछते हुए राम ने सरयू को देखा। कुछ दिनों पहले की ही तो बात थी जब ऋषि दुर्वासा के हठ के कारण लक्ष्मण उन गुप्त-सभा के सभी नियम को तोड़ते हुए अंदर पहुंच गये थे और नियम के अनुसार उन्हें प्राणदंड मिला।

"क्या लक्ष्मण अभी भी सरयू में कहीं समाधिस्थ होगा, अपने प्रिय भैया के इंतजार में.." श्री राम के मन के विचार तरल रूप में आँखों से बाहर ढुलक पड़े।

चंद्रमा अपने धाम को चलायमान था और अयोध्या अभी भी शांत था, उनके प्रभु की मन की व्यथा अभी उन तक पहुंच न पायी थी।

रामचन्द्र अपने राज्य, अपने नगर को अपलक देखे जा रहे थे। अब सबकुछ ठीक था वर्षों की मेहनत, बलिदान, कठोर नियमपालन कानून से सच में अयोध्या में रामराज्य था। प्रजा संतुष्ट थी, कर्मचारी चतुर और मेहनती थे। राज्य का शाषण व्यवस्था सुचारू रूप से चल रहा था। अब अयोध्या को रामचंद्र की जरूरत नहीं पड़ेगी,

"पिताजी, सीता और अब लक्ष्मण भी.. अब कोई बलिदान नहीं.. राम यहीं ठहर जाओ.."

अचानक राम उठ खड़े हुए, इशारे से अंगरक्षक को पास बुलाया। ताम्र पत्र पे हनुमान और लव-कुश के लिए जरूरी संदेश और दिशा निर्देश लिख उन्होंने अंगरक्षक को राजमहल लौटा दिया ।
अब श्री राम अकेले चल रहे थे, अपनी सारी व्यथाओं के साथ। एक-एक सीढ़ी नीचे उतरते हुए जीवन के तमाम प्रसंगों को स्मृति में जीवंत करते हुए। पिता दशरथ का गोद मे ले कर लाड़ करना, माता कौशल्या का छोटी-छोटी बातों पे डर के सीने से लगा लेना । लक्ष्मण का उग्र रूप और उनकी शैतानियां। गुरुकुल में ऋषि वशिष्ठ के सारे सीख, उनका राम पे अखंड विश्वास। जनकपुर में पहली बार सीता से मिलाप, वो सीता के आंखों में देखते हुए धनुष का तोड़ देना। सीता के साथ बिताये गये वो तमाम क्षण | सीता हरण का वियोग, प्रिय सखा हनुमान की सेवा | रावण के साथ युद्ध, अयोध्या वापस लौटना..

अचानक से राम के विचारों में सरयू के आवेशित लहर का मिश्रण हो गया। राम चलते-चलते सरयू के जल में मध्य तक पहुंच चुके थे। सरयू की तलहटी उन्हें अंदर खींच रही थी और राम ने आँखों को बंद कर मुस्कुराते हुए स्वयं को जाने दिया। बंद आँखों के पीछे, पिता दशरथ, सीता और लक्ष्मण उन्हें बुला रहे थे।

सरयू कितनी विचलित हो सकती थी? इतनी तो नहीं की श्री रामचंद्र के व्यथा को शांति न दे सके।

- [ अज्ञात अनादि ]

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