ॐ (ओ३म्) ------------- जाने ॐ के बारे मे सम्पूर्ण जानकारी
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ॐ ब्रह्मांड की अनाहत ध्वनि है. इसे अनहद भी कहते हैं. संपूर्ण ब्रह्मांड में यह अनवरत जारी है.
इस प्रणवाक्षर (प्रणव अक्षर) भी कहते हैं. प्रणव का अर्थ होता है तेज गूंजने वाला, अर्थात जिसने शून्य में तेज गूंज कर ब्रह्माण्ड की रचना की.
वैसे तो इसका महात्म्य वेदों, उपनिषदों, पुराणों तथा योग दर्शन में मिलता है, परन्तु खास कर माण्डुक्य उपनिषद में इसी प्रणव शब्द का बारीकी से समझाया गया है.
माण्डुक्य उपनिषद के अनुसार यह ओ३म् शब्द तीन अक्षरों से मिलकर बना है : अ, उ, म. प्रत्येक अक्षर ईश्वर के अलग अलग नामों को अपने में समेटे हुए है. जैसे "अ" से व्यापक, सर्वदेशीय, और उपासना करने योग्य है. "उ" से बुद्धिमान, सूक्ष्म, सब अच्छाइयों का मूल, और नियम करने वाला है. "म" से अनंत, अमर, ज्ञानवान, और पालन करने वाला है. तथा यह ब्रह्मा, विष्णु और महेश का प्रतीक भी है.
आसान भाषा में कहा जाये तो निराकार ईश्वर को एक शब्द में व्यक्त किया जाये तो वह शब्द ॐ ही है.
तपस्वी और योगी जब ध्यान की गहरी अवस्था में उतरने लगते हैं तो यह नाद (ध्वनि) हमारे भीतर तथापि बाहर कम्पित होती स्पष्ट प्रतीत होने लगती है. साधारण मनुष्य उस ध्वनि को सुन नहीं सकता, लेकिन जो भी ओम का उच्चारण करता रहता है, उसके आसपास सकारात्मक ऊर्जा का विकास होने लगता है. फिर भी उस ध्वनि को सुनने के लिए तो पूर्णत: मौन और ध्यान में होना जरूरी है.
हाल ही में हुए प्रयोगों के निष्कर्षों के आधार पर सूर्य से आने वाली रश्मियों में अ उ म की ध्वनि होती है. इसकी पुष्टि भी वैज्ञानिकों द्वारा हो चुकी है.
ॐ को केवल सनातनियों के ईश्वरत्व का प्रतीक मानना उचित नहीं. जिस प्रकार सूर्य, वर्षा, जल तथा प्रकृति आदि किसी से भेदभाव नहीं करती, उसी प्रकार ॐ, वेद तथा शिवलिंग आदि भी समस्त मानव जाति के कल्याण हेतु हैं. यदि कोई इन्हें केवल सनातनियों के ईश्वरत्व का प्रतीक माने तो इस हिसाब से सूर्य तथा समस्त ब्रह्माण्ड भी केवल हिन्दुओं का ही हुआ ना? क्योकि सूर्य व ब्रहमांड सदेव ॐ का उद्घोष करते हैं.
ॐ पर एक प्रयोग
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Hans Jenny (1904) जिन्हें Cymatics (The study of the interrelationship of sound and form) का जनक कहा जाता है, ॐ ध्वनि से प्राप्त तरंगों पर कार्य किया.
Hans Jenny ने जब ॐ ध्वनि को रेत के बारीक़ कणों पर स्पंदित किया (resonated om sound on sand particles), तब उन्हें वृत्ताकार रचनाएँ तथा उसके मध्य कई निर्मित त्रिभुज दिखाई दिए, जो आश्चर्यजनक रूप से श्रीयन्त्र से मेल खाते थे. इसी प्रकार ॐ की अलग अलग आवृत्ति पर उपरोक्त प्रयोग करने पर अलग अलग परन्तु गोलाकार आकृतियाँ प्राप्त होती हैं.
इसके पश्चात तो बस जेनी आश्चर्य से भर गये और उन्होंने संस्कृत के प्रत्येक अक्षर (52 अक्षर होते हैं, जैसे अंग्रेजी में 26 हैं.) को इसी प्रकार रेत के बारीक़ कणों पर स्पंदित किया. तब उन्हें उसी अक्षर की रेत कणों द्वारा लिखित छवि प्राप्त हुई।
इसके पश्चात Dr. Howard Steingeril ने कई मन्त्रों पर शोध किया और पाया की गायत्री मन्त्र सर्वाधिक शक्तिशाली है. इसके द्वारा निर्मित तरगदैर्ध्य में 110,000 तरंगें/सेकंड की गति से प्राप्त हुई।
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श्री यंत्र |
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1. ॐ ध्वनि को रेत के बारीक़ कणों पर स्पंदित करने पर प्राप्त छवि --> श्रीयन्त्र
2. जैसा की हम जानते हैं, श्रीयन्त्र संस्कृत के 52 अक्षरों को व्यक्त करता है।
3. ॐ --> श्रीयन्त्र --> संस्कृत वर्णमाला
4. ॐ --> संस्कृत
संस्कृत के संदर्भ में हमने सदैव यही सुना की यह ईश्वरप्रदत्त भाषा है. ब्रह्म द्वारा सृष्टि उत्पत्ति के समय संस्कृत की वर्णमाला का आविर्भाव हुआ.
यह बात इस प्रयोग से स्पस्ट है की ब्रह्म (ॐ मूल) से ही संस्कृत की उत्पत्ति हुई.
अब समझ में आ गया होगा, संस्कृत क्यों देवभाषा/देववाणी कही जाती है!
इसी प्रकार कुण्डलिनी योग में शरीर में स्थित सात चक्रों को अलग प्रतीक तथा उनके मंत्र दिए गये हैं, जिसका वर्णन हमें इस प्रकार मिलता है की प्रथम चक्र का नाम मूलाधार चक्र है. ये चार पंखुड़ियों का कमल होता है. और इसकी जाग्रति का मंत्र "लं" है.
यदि इन सात चक्रों के सात मन्त्रों पर उपरोक्त प्रयोग किया जाये तो प्राप्त आकृतियाँ इसी प्रकार की होंगी, जैसी चित्र में दर्शाई गई है. इन सातों कमलों की प्रत्येक पंखुड़ी पर संस्कृत का एक अक्षर स्थित होता है, अर्थात चक्र से उच्चारित होता है.
इसी तथ्य पर आधारित आधुनिक अल्ट्रासाउंड, इकोग्राफी तथा सोनोग्राफी आदि के माध्यम से शरीर के अंगो से उच्चारित ध्वनि को सुना जाता है और प्राप्त ध्वनि तरंगें की गणना के पश्चात रोग का पता लगा कर निदान किया जाता है.
इस प्रकार 6 चक्रों तक में संस्कृत के कुल 52 अक्षर तथा अंतिम चक्र में पूरे 52 अक्षर होते हैं, जिसका मूल मंत्र है "ॐ". जैसा की हम ऊपर देख चुके हैं.
कई एक्स्ट्रा स्मार्ट ये सोचते होंगे की हमने पूरा शरीर चीर कर देख लिया. एक भी कमल नहीं निकला. सारे ऋषि कल्पनाशील थे, गप्पें मारते थे!
इसी प्रकार महामृत्युञ्जय मंत्र तथा गायत्री मंत्र आदि द्वारा उनके यंत्रों की प्राप्ति होगी.
ऋषियों ने इन यंत्रों की संरचनाओं को जान लिया था. अब या तो वे दिव्यद्रष्टा थे, अथवा ये प्रयोग वे हजारों वर्षों पूर्व कर चुके थे, जिस समय विदेशी डिनर के लिए भालू के पीछे भागते थे.
(विभिन्न प्रामाणिक स्रोतों से प्राप्त जानकारी पर आधारित)
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