दबे पाँव 2 - वृंदावनलाल वर्मा


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घायल सुअर का चिह्न लेते-लेते मित्र ने एक पत्थर के पास देखा तो राइफल की गोली के टुकड़े पड़े हुए हैं। मैं भी उनके पास पहुँच गया। मैंने बी वे टुकड़े देखे।
वे बोले, 'भाई, मेरी गोली तो पत्थर पड़ी है, सुअर पर नहीं पड़ी है। वह आपका घायल किया हुआ सुअर था।'
मैंने सोचा, मैं भी अपनी मूर्खता प्रकट कर दूँ। बंदूक चल पड़ने की सविस्तार कहानी सुनाकर कहा, 'नाल जरा ऊँची थी, नहीं तो गोली किसी हँकाईवाले पर पड़ती।'
वे हँसकर बोले, 'यार मेरे, चुप भी रहो। न किसी से मेरी कहना, न अपनी।'
हम दोनों ने अपनी झेंप पर परदा डाल लिया।
मेरे एक मित्र (अब इस दुनिया में नहीं हैं) शिकार में काफी रुचि रखते थे अर्थात् जितनी का उनके खाने से संबंध था। स्थूल इतने कि बिना हाँफ के दस कदम भी चलना एक आफत। एक दिन बड़ा दंभ किया। बोले, 'मैं चलती मोटर में से जानवर पर बंदूक चला देता हूँ।'
मैंने सिधाई के साथ पूछा, 'और वह जानवर को लग भी जाती है?'
उन्होंने जरा हेकड़ी के साथ उत्तर दिया, 'नहीं तो क्या कोरे पटाखे फोड़ता हूँ!'
मैंने उस समय बात नहीं बढ़ाई, परंतु उनकी परीक्षा लेने का निश्चय कर लिया।
एक दिन अवसर मिल गया।
वे ताँगे पर बैठकर शिकार के लिए जाने को ही थे कि मैं अकस्मात् उनके घर पहुँच गया। उन्होंने मुझे साथ चलने के लिए कहा। मैं तुरंत राजी हो गया, चाहता ही था। बंदूक ले आया और साथ हो लिया।
कुछ ही मील जाने पर उनको हिरनों का एक झुंड मिल गया। गोली चलाने के लिए उन्होंने मुझसे प्रस्ताव किया। मैंने तो न चलाने का निश्चय ही कर लिया था। नाहीं कर दी।
'आप ही चलाइए। ताँगे से ही चलाइए। हिरन पास ही तो हैं।'
'अजी नहीं! ताँगा हिल रहा है। निशाना चूक जाएगा।'
'पर मोटर से तो कम हिल रहा है।'
'आप मजाक समझते हैं; चलाता, मगर घोड़ा भड़क जाएगा।'
'तब उतर जाइए। ओट लेकर चलाइए।'
पेड़ों की आड़ के आने पर ताँगा रोक लिया गया। वे किसी तरह ताँगे से उतरे।
धोती पहने हुए थे। ढूँकते-ढाँकते वे हिरनों की ओर बढ़े। दस-पंद्रह कदम भी न गए होंगे कि चौकन्ने हिरनों ने उनको देख लिया। हिरन भागे।
वे भी हिरनों के पीछे भागने का प्रयत्न करने लगे। उधर उन्होंने गोली चलाई, इधर उनकी धोती अधखुली हो गई। हिरनों के पास गोली की हवा तक न फटकी। वे धोती सँभालते और हँसते हुए ताँगे की ओर आए। मारे हँसी के मेरे पेट में बल पड़ रहे थे।
मैंने किसी तरह हँसी को रोककर उनसे कहा, 'यदि सुअर होता और जरा सा घायल हो जाता तो आप क्या करते?'
वे जबरदस्ती हँसी को दबाते हुए बोले, 'यदि सुअर होता और जरा सा घायल हो जाता तो आप क्या करते?'
वे जबरदस्ती हँसी को दबाते हुए बोले, 'क्या करते! सुअर क्या कर लेता?'
मुझको फिर हँसी आ गई। मैंने कहा, 'क्या कर लेता, सो तो मैं ठीक-ठाक नहीं बतला सकता, परंतु इतना कह सकता हूँ कि आप धोती सँभालने की फुरसत न पाते।'
इन पर हम दोनों हँसते रहे; लेकिन उस दिन के बाद हम लोगों का साथ शिकार में न हुआ।
दो वकील मित्रों तो शिकार में मेरे साथ घूमने की लालसा हुई। मैं इनकार न कर सका। परंतु वकील मित्र कमजोर न थे। तेरह मील चलने के बाद मेरी साइकिल के चक्के में एक बेतुका छेद हो गया। तब दोनों गपशप करते हुए आठ मील पैदल गए। बेतवा किनारे 'घुसगवाँ' नाम का एक गाँव है। संध्या होने के पहले ही पहुँच गए। गाँववालों की सहायता से तुरंत बंदूकें लिए जंगल की ओर चल दिए।
तीन-चार सुअर मिले। मेरे मित्र की सीध में वे बैठ नहीं रहे थे, इसलिए मैंने ही बंदूक चला दी। एक गिर गया। रास्ते की रिस वकील मित्र ने मरे हुए सुअर पर निकाली। वे आमोदप्रिय भी थे, इसलिए भी उन्होंने एक दिल्लगी की।
मरे हुए सुअर पर उन्होंने धाड़ से गोली छोड़ी। चूकने की कोई बात ही न थी। गोली लगने पर हँसते हुए बोले, 'बस जी, मैंने इसको मारा है। मेरे शिकार पर तुमने बाद में बंदूक चला दी।'
मैंने कहा, 'बिलकुल सही, मुकदमों की सचाइयों से भी ज्यादा सच।'
फिर हम लोग बैलगाड़ी से उसी रात चिरगाँव रेलवे स्टेशन पर आए और सवेरे झाँसी पहुँचे। मित्र बहुत थक गए थे; परंतु उनकी वन-भ्रमण की कामना कम नहीं हुई। वे अनेक बार मेरे साथ जंगलों और पहाड़ों में घूमे हैं।
दूसरे साहब का अनुभव बिलकुल विपरीत रहा।
एक गाँव में अदालती काम से दूसरे वकील मित्र मेरे साथ गए। गरमियों के दिन थे। दस बजते-बजते गाँव पहुँचे। लू चलने लगी। बारह बजे तक हम लोग काम से निवृत्त हो गए। गाँव से मील-डेढ़ मील पर जंगल था। मैंने उनसे मटरगश्त के लिए प्रस्ताव किया। लू चल रही थी, इसलिए उनके उत्साह में कुछ ढिलाई आ गई थी; लेकिन बिलकुल बुझा न था। साथ चल दिए।
मील-डेढ़ मील चलने के बाद ही वकील मित्र काफी परेशान हो उठे। बोले, 'अभी तक तो कुछ दिखा नहीं। यों मारे-मारे फिरने से क्या फायदा?'
मैंने कहा, 'शिकार मिले या न मिले, पर चलने-फिरने के फायदे से तो तुम इनकार नहीं कर सकते। लौटकर जब चलोगे, बेभाव भूख लगेगी। रात को बेहिसाब सोओगे।'
जंगल छेलवे और हींस-मकोय का था। ऐसी जगह सुअरों के पड़े मिलने की आशा थी। इसलिए लगभग एक मील और भटके। मेरे मित्र को प्यास लग रही थी। ढुकाई के शिकार में भी दो कठिनाइयों का अनुभव कर रहा था। अपने को सँभालना और उन मित्र को दबे-छिपे ले चलना। इसलिए हम लोग लौट पड़े।
मित्र का मुँह सूख रहा था और उनसे चलते नहीं बन पा रहा था। गाँव पहुँचते ही मैंने देखा, उनके पैरों में बड़े-बड़े फफोले पड़ आए हैं। उनका कष्ट देखकर मुझको खेद हुआ और क्षोभ भी। एक प्रश्न मन में उठा क्यों नहीं स्कूलों और कॉलेजों में ही लड़कों को पक्का और कट्टर बना दिया जाता?
वकील मित्र ने कष्ट कम होने पर कहा, 'भाड़ में जाय तुम्हारा शिकार! आगे के लिए कसम खाई।'
किसी-किसी ग्रामीण में सुअर के प्रति इतनी हिंसा होती है कि वह सबकुछ कर डालने पर उतारू हो जाता है। तब इतना निडर हो जाता है कि जान पर खेल जाता है।
भरतपुरा गाँव के पास ही एक लोधी अपने खेतों के बीच की पड़ती पर घर बनाए हुए था। जब देखो तब सुअर कुछ-न-कुछ उत्पाद खेतों में करता रहता था। उसके पास हथियार कोई था नहीं। हिंसा ने उसको एक निश्चय दिया।
लोधी का शरीर बहुत तगड़ा था, परंतु उसके आँख एक ही थी; पर थी काफी तेज।
वह एक दिन संध्या के पहले ही सुअरों की राह पर एक ओट में जा बैठा। कुल्हाड़ी साथ में थी।
सुअर बहुत धीरे-धीरे आया। आड़ से लगभग सटा हुआ निकला। लोधी ने आव देखा न ताव, जैसे ही सुअर के पीछेवाला भाग उसकी पहुँच के पास हुआ कि उसने पिछले पैर अपने दोनों हाथों से पकड़ लिए और खड़ा हो गया।
सुअर लगा करने 'हुर्र हुख'। उसने बहुत प्रयत्न लौटकर चोट पहुँचाने का किया, बड़ा बल लोधी के फौलादी शिकंजे से निस्तार पाने के लिए लगाया; परंतु सब व्यर्थ।
लोधी अपनी लगन पर दृढ़तापूर्वक सवार था और सुअर के पैरों को इस प्रकार पकड़े था कि वह किसी तरह भी छुट्टी नहीं पा सका। कुल्हाड़ी करीब थी; परंतु लोधी उसका उपयोग नहीं कर पा रहा था।
गुल-गपाड़ा सुनकर आस-पास के किसान कुल्हाड़ियाँ और लाठियाँ लेकर दौड़े। तब सुअर से उसने छुटकारा पाया।
फिर तो सुअरों से उस लोधी का डर सदा के लिए छूट गया। उसने बड़े-बड़े सुअर लाठियों और कुल्हाड़ियों से मारे। कई बार घायल भी हुआ। सुअर के नाम से ही उसको इतनी चिढ़ थी कि वह उसकी खोज में दिन-रात, जाड़ा-बरसात कुछ नहीं देखता था। यदि उस किसान के पास बंदूक होती तो शायद वह जंगल को सुअरों से सूना कर देता।
उसने बंदूक का लाइसेंस प्राप्त करने की चेष्टा भी की; परंतु उसको लाइसेंस कौन देता! न काफी मालगुजारी देनेवाला जमींदार और न पुलिस का मुखिया; न अँगरेज शिकारियों का खुशामदी या अँगरेज का आबुर्दा।
एकांत जीवन बितानेवाला निडर, निर्भीक किसान। उसने अंत तक अपनी लाठी-कुल्हाड़ी का भरोसा किया और बंदूक की या बंदूक का लाइसेंस देनेवालों की कभी परवाह नहीं की।
सुअर के शिकार के लिए जो 'गड्ढा' बनाया जाय वह काँटेदार तो कम से कम होना ही चाहिए; परंतु मेरे एक साथी हेकड़ी के साथ एक रात कठजामुन के झुरमुट में जा बैठे। कठजामुन में पत्तों की भरमार थी। मोटी डालें बहुत कम थीं। उसके साथ दुर्जन कुम्हार बैठा था, नहीं तो असली बात का पता ही न चलता।
सुअर आया। उन्होंने बंदूक चलाई। सुअर घायल हो गया। उसने समझ लिया कि गोली कहाँ से आई। झुरमुज की ओर झपटा।
शिकारी और दुर्जन भागे। दुर्जन ने दूर भागकर दम ली। शिकारी लगे काटने चक्कर कठजामुन के झाड़ के। उनके साथ सुअर भी चक्कर काता रहा। सुअर बहुत घायल हो गया था, इसलिए शिकारी बच गए; नहीं तो वह अपनी खीसों से उनकी उधेड़बुन कर डालता। चाँदनी रात थी, दुर्जन सब देख रहा था।
सवेरे जब मैंने उनसे रात का वृत्त पूछा, क्योंकि एक-दूसरे का अनुभव पूछने में प्रमोद होता है, तो उन्होंने कहा, 'सुअर घायल होकर भाग गया।' दुर्जन हँस पड़ा। उसकी हँसी शिकारी को बहुत खली। वे अपनी झेंप को ढाँकना चाहते थे; परंतु दुर्जन की हँसी उघाड़े दे रही थी। मेरे कुरेदकर प्रश्न करने पर दुर्जन ने कहा, 'सुअर भग गओ और जे कठजामुन को परदच्छना (प्रदक्षिणा) देत रये।'
फिर उसने सारा हाल विस्तार के साथ सुनाया।

11
साँभर और नीलगाय इसके नर को 'रोज' और मादा को 'गुरायँ' कहते हैं। खेती के ये काफी बड़े शत्रु हैं। बड़े शरीर और बड़े पेटवाले होने के कारण ये कृषि का काफी विध्वंस करते हैं।
जब गाँव के ढोर चरते-चरते जंग में पहुँच जाते हैं तब रोज-गुरायँ तो इनके साथ हिल-मिलकर चरने लगते हैं। रोज-गुरायँ मनुष्य से, अन्य जानवरों की अपेक्षा, कम छड़कता है। वह जंगल के भीतर नहीं रहता। प्रायः जंगल के प्रवेश के निकट ही मिल जाता है। इनके झुंड के झुंड होते हैं। मैंने पचास-पचास तक के झुंड देखे हैं। इनका नर जब पूरा बढ़ जाता है तब उसका रंग नीला हो जाता है। गले में घंटियाँ सी और पूँछ छोटी। सींग भी बड़े नहीं होते। यह बड़ा मजबूत होता है और दौड़ाने में बहुत तेज। कोई-कोई इसके बच्चों को पालते हैं और सवारी का काम लेते हैं - गाड़ी में जोतकर।
परंतु नाले और खाई-खड्डों को देखते ही उसको अपने पुरखों की याद आ जाती है और फिर यह नाथ, डोर, रस्सी हाँकने वाले और गाड़ी सवारी किसी की परवाह नहीं करता। बेभाव छलाँग मारता है। चाहे गाड़ी में बैठनेवाला बचे या मरे, इसकी कोई चिंता इसको नहीं रहती।
झाँसी के एक गुसाईंजी ने रोज के बच्चों की जोड़ी पाली और बड़े होने पर उनको गाड़ी में जोता। जब तक वे सीधे रास्तों पर चलाए गए तब तक उन्होंने अपनी तेज दौड़ से सबको संतोष दिया; परंतु एक दिन जब देहाती मार्ग में एक नाला और बगल में खड्ड मिला तब उनको अपनेपन की याद आ गई। विकट छलाँग भरी। गाड़ी लौट गई। गाड़ीवान घायल हो गया और गुसाईंजी को प्राणों से ही हाथ धोने पड़े।
जब तक इसके जोड़, सिर या गरदन पर गोली नहीं पड़ती तब तक घायल होने पर भी यह हाथ नहीं आता।
इस पशु में एक विलक्षणता है। यह मौका पाकर दिन में भी खेतों में घुस आता है और रात तो इन सब जानवरों की है ही।
झुंड में नर होते हुए भी अग्रणी साधारण तौर पर मादा होती है। बहुत सावधान और बड़ी तेज।
रोज-गुरायँ के चमड़े को गाँववाले परहे बनाने के काम में लाते हैं।
साँभर खुरीवाले जंगली जानवरों में सबसे अधिक सावधान है। जरा सा खुटका पाते ही ठौर छोड़कर भागता है। यह प्रायः दस-दस पंद्रह-पद्रह के झुंड में रहता है; परंतु नर अकेला भी पाया जाता है। यह जंगल के अत्यंत बीहड़ और छिपे हुए स्थानों को ढूँढ़ता है। अधिकतर लंबी घासवाले नालों और घनी झोरों में रहता है।
सिर और गरदन को खुजलाने के लिए इसको जहाँ सलैया के पेड़ मिल जाते हैं, वहाँ अधिक ठहरता है। सलैया की गोंद की सुगंधि इसके लंब फंसोंवाले सींगों की रगड़ से आस पास के वातावरण को महका देती है।
साँभर खेतों पर आधी राते के पहले बहुत कम आता है। जब आता है, बहुत धीरे-धीरे बहुत चुपके-चुपके। यह बड़ी-बड़ी बिरवाइयों को कूद-फाँद जाता है। शरीर के लंबे बालों के कारण, सुअर की तरह, इसको भी काँटों की परवाह नहीं होती। प्रायः कँटीली बिरवाइयों में इसके टूटे हुए बाल चिपके मिलते हैं। इसके खुर लंबे होते हैं और पैर बहुत लचीले। सहज ही पहाड़ों पर चढ़ जाता है।
इसका अगला धड़ बड़ा, पिछला हलका, पूँछ छोटी और आवाज रेंक सी तीखी, मोटी और ठपदार होती है। कान घंटे की तरह गोल और बड़े। ये इतने बड़े तेज होते हैं कि ढुकाई का शिकार तो इनका बहुत ही श्रमसाध्य और कठिन है।
साँभर में सूँघने की शक्ति इतनी प्रबल होती है कि वह तीस-चालीस गज से असाधारण गंध को पाकर तुरंत मुरककर चला जाता है।
होली की छुट्टियों में भरतपुरा गया। दुर्जन ने संध्या के पहले ही नदी के एक टापू पर एक बड़े साँभर के चिह्नों का पता दिया। कठजामुन के काफी झुरमुट उन चिह्नों के पास थे। मैं दुर्जन के पास एक झुरमुट में सूर्यास्त के पहले जा बैठा। दिन में भरतपुरावाले मेरे मित्र ने जंगल में केसर-चंदन और इत्र-पान से होली मनाई थी। खस के इत्र का उनको बहुत शौक था। उन्होंने मेरे कपड़ों में पोत दिया। उन्हीं कपड़ों को पहने मैं कठजामुन के झुरमुट में दुर्जन के साथ बैठा था।
लगभग आठ बजे साँभर आहट लेता हुआ धीरे-धीरे मेरे स्थान की ओर आया। जब पच्चीस-तीस गज की दूरी पर आ गया होगा, उसने नथने फुफकारे। खस की गंध ने उसको अपने शत्रु की उपस्थिति बतला दी। उसने जोर के साथ अपनी बोली में आश्चर्य या भय प्रकट किया और भाग गया।
दुर्जन उस समय पैर लंबे किए बैठा-बैठा सो रहा था। जैसे ही साँभर ने आवाज लगाई, दुर्जन चौंक पड़ा। उसके पैर उठ गए और मेरी कनपटी से जा टकराए। मुझको बहुत हँसी आई। मैंने कहा, 'दुर्जन, तुम्हारी नींद के खुर्राट ने साँभर को भगा दिया।'
दुर्जन बहुत सहमा; परंतु थोड़ी ही देर में बोला, 'बाबू साब, काए खों लच्छिन लगाउत! तुमार अतर ने भगाओ साँभर खो।'
यह अगोट पर या हँकाई में सहज ही हाथ चढ़ जाता है। इसकी खाल पकाई जाने पर बहुत मुलायम और लोचदार होती है। जूते, टाँगों के टोकरे, दस्ताने, बास्कट इत्यादि बनाए जाते हैं। परंतु पानी में इसका चमड़ा लीचड़ हो जाता है। साँभर कठोर ठंड में भी रात को डुबकियाँ लगाता है; ठंडे कीचड़ में लोट लगाता है। यह जंगल से निकलकर नदी की पूरी धार को पार करके खेतों में पहुँच जात है। लौट आता है और जानवरों से दो घंटे पहले। चार बजे के बाद फिर यह खेतों में नहीं ठहरता।
जब सरूर पर होता है, तब एक नर दूसरे से बेतरह सींग खटखटाता है। यह लड़ाई मादा के पीछे या झुंड का अगुआ बनने की प्रतिद्वंदिवता में होती है। कभी कभी इतनी खटाखट होती है कि आस पास का जंगल गूँज उठता है।
साँभर पानी पीने के लिए सुनसान जंगल में दिन में ही बाहर निकल पड़ता है। वैसे इनका पानी पीने का समय संध्या के उपरांत जररा रात बीते है।
एक दिन गरमियों में मैं नदी के किनारे एक-दूसरे गड्ढे में दो-तीन घंटे दिन जा बैठा। 'गढ़ कुंडार' पूरा नहीं हो पाया था। झाँसी में बहुत कम समय मिलता था। छुट्टियों में शिकार के लिए जंगल की राह पकड़ लेता था; परंतु लिखने की सामाग्री साथ ले जाता था। उस दिन गड्ढे में पड़ा 'गढ़ कुंडार' लिख रहा था; क्योंकि सूर्यास्त के लिए काफी समय था। साथ में करामत था। मैंने उसको आहट लेते रहने के लिए कह दिया था।
सूर्यास्त होने को आ रहा था। मैं अपनी धुन में मस्त था। करामत आहट लेते-लेते और जानवरों की बाट जोहते-जोहते अलसा उठा था कि साँभरों का एक झुंड गड्ढे से पद्रंह-बीस डग की दूरी पर आया। करामत ने मुझको संकेत किया। मैंने उनको देखा। वे सब एक ही स्थान पर पानी पीने के लिए परस्पर कुश्तम-कुश्ता कर रहे थे। करामत ने बंदूक चलाने के लिए इशारा किया। साँभर मुझको इतने मोहक लग रहे थे कि मैं बंदूक न चला सका। इनकार कर दिया। जब साँभर पानी पीकर वहाँ से धीरे-धीरे चल दिए तब मैं अपनी निष्क्रियता पर थोड़ा पछताया।
साँभर जब जंगल के सुनसान को चीरता हुआ बोलता है तब जंगल की महिमा पर मुहर सी लगती है।
साँभर से बारहसिंगा छोटा होता है। उसके सींग साँभर के सींगों से भी अधिक सुंदर होते हैं। सिर पर सींगों का झाड़-सा जान पड़ता है। मंडला जिले के कान्हाकिसली नामक जंगल का मैंने थोड़ा सा भ्रमण किया है। कान्हाकिसली जंगल में शिकार खेलने की अनुमति नहीं मिलती। मुझको इस जंगल में शिकार नहीं खेलना था, खेल ही नहीं सकता था। परंतु उसकी बड़ाई बहुत सुनी थी, इसलिए कुछ मित्रों के साथ भ्रमण के लिए गया था।
हम लोगों के पहुँचने के पूर्व हॉलैंड की एक कंपनी जंगली जानवरों का चित्रपट बनाने के लिए अपनी मशीनों के साथ काफी समय तक ठहरी रही थी।
हम लोगों ने साज, सरही और सागौन के विशाल समूह तो उस जंगल में देखे ही, विंध्याचल-सतपुड़ा की विकट सम-विषम ऊँचाइयों को देखकर श्रद्धा में डूब जाना पड़ा था। और जिस मार्ग पर जाएँ उसी पर शेरों, जंगली भैसों इत्यादि के पदचिह्न दिखलाई पड़े।
उस जंगल में एक पथरीली ऊँचाई का नाम है श्रवण पहाड़ी। वही श्रवण, जिसकी कथा पुराण में प्रसिद्ध है, जिसको दशरथ ने भ्रमवश अपने बाण से वेध डाला था और इस अनजाने किए हुए पाप के बदले में भयंकर शाप पाया था। उस श्रवण पहाड़ी के नीचे एक पुराना तालाब था। लोगों ने एक लोक परंपरा बतलाई - उसी श्रवण की यह पहाड़ी है और इसी तालाब के किनारे राजा दशरथ ने अपने तीर से श्रवण का प्राण ले डाला था।
हम लोग तालाब के बंध पर चढ़े। उसमें पानी बिलकुल न था; पर पेडों की छाया में बारहसिंगों का बड़ा भारी झुंड बैठा था। उस जंगल में बंदूक न चलने के कारण और मनुष्यों के अल्प विचरण के कारण जानवर निर्बाध रहते तथा घूमते हैं। हम लोग तालाब के बंध पर कई क्षण खड़े रहे, परंतु बारहसिंगे विचलित नहीं हुए। हम लोगों ने आपस में बातचीत शुरू की तब वे दो-दो, चार-चार करके खड़े हुए। मैंने उनको गिनने की चेष्टा की- एक सौ अठ्ठारह से अधिक थे।
अब यह जानवर अन्य जंगलों में बहुत कम हो गया है।
होशंगाबदा के बाहर इटारसी सड़क पर एक पहाड़ी है। इसकी भीमकाय चट्टानों के भीतरी भाग पर कुछ प्राचीन चित्र हैं। उनमें एक जाति के जानवर का भी अंकन है, जो बारहसिंगा से कहीं बड़ा, परंतु मिलता-जुलता है। अब यह जानवर भारतवर्ष भर में कहीं भी नहीं है।
बारहसिंगा जंगल का सौंदर्य है। इसको बिलकुल न मारा जाए तो शायद कोई हानि नहीं; क्योंकि यह खेती के पासवाले जंगलों में नहीं पाया जाता।
दूसरे जानवर जो खेती को कम नुकसान पहुँचाते सुने गए हैं। चौसिंगा वन बेड़ और कोटरी है।
चौसिंगा कुछ बड़ा होता है और कोटरी एवं वन भेड़ लगभग एक ही डील-डौल के होते हैं। चौसिंगा के माथे के पिछले तथा अगले भाग पर दो-दो सींग होते हैं। पिछले भाग पर जरा लंबे और अगले भाग पर कुछ छोटे। रंग गहरा खरा। वन भेड़ इससे मिलती-जुलती है। इन दोनों की रक्षा इनकी फुरती और सावधानी में है। चिंकारे की तरह ये भी जरा से खुटके पर कूदते-फाँदते नजर आते हैं। जरा चूके कि गए।
कोटरी विलक्षण प्रकार का दबा हुआ कूका लगाती है। विंध्यखंड के जंगलों में काफी संख्या में पाई जाती है। जोड़ी के सिवाय इसके झुंड बहुत कम देखे गए हैं। घने-बेगरे दोनों प्रकार के जंगलों में पाई जाती है। कहते हैं, यह शेर के आगे-आगे चलती है। असल बात यह है कि शेर के निकल पड़ने पर जंगल में भगदड़ मच जाती है। जब कोटरी भयभीत होकर बोलती है तब लोग समझते हैं कि वह जंगल को शेर के आगमन की सूचना दे रही है।

12
एक समय था जब हिंदुस्थान में सिंह - गरदन पर बाल, अयालवाला - पाया जाता था। काठियावाड़ में सुनते हैं कि अब भी एक प्रकार का सिंह पाया जाता है। नाहर या शेर ने, जिसके बदन पर धारें होती हैं, अपना वंश बढ़ाकर इसको जंगलों से निकला बाहर कर दिया है।
ग्वालियर नरेश महाराज माधवराव ने अफ्रीका की नस्ल के कुछ सिंह शावक शिवपुरी के पास के जंगलों में छुड़वाए थे। वे बढ़े और उनकी कुछ संतानें शिवपुरी के आस पास के जंगलों में अभी भी हैं।
सिंह का अगला भाग भारी होता है। मुँह चौड़ा-चकला और खोपड़ा बड़ा। गरदन पर अयाल होने के कारण यह विशाल और भयानक प्रतीत होता है; परंतु वास्तव में धारीदार नाहर के बराबर बलवान, प्रचंड या पाजी नहीं होता। इसका शिकार धारीदार नाहर के जैसा ही खेला जाता है; परंतु मुझको एक भी नहीं मिला, इसलिए मेरा निजी अनुभव इसके विषय में बिलकुल नहीं है।
ग्वालियर राज्य के जंगल झाँसी जिले से लगे हुए हैं, इसलिए जानवरों का वहाँ से आना-जाना यहाँ बना रहता है। लगभग बाईस साल हुए, जब ग्वालियर के जंगलों से एक मनुष्यभक्षी सिंह झाँसी के जंगलों में आ धमका पहले तो ललितपुर तहसील के बाँसी नामक ग्राम के आस पास तहलका मचाता रहा। दूर-दूर से कुछ अँगरेज शिकारी उसकी टोह में आए; परंतु वह इतना चालाक था कि किसी की भी अंटी पर न चढ़ा। मैंने उन शिकारियों की असफलता का वर्णन एक अँगरेजी पुस्तक में पढ़ा है। बाँसी से टलकर यह मनुष्यभक्षी सेर बेतवा के किनारे-किनारे ओरछा के जंगल में आया और फिर वहाँ भटकता घूमता मेरे अड्डों के निकट आ गया।
मुझको हर छुट्टी में उन जंगलों में विचरण करने का अभ्यास था, जिनके निकट यह मनुष्यभक्षी आ गया था।
जब मैं छुट्टी में अपने अड्डों पर जाता तो सुनता - वह मनुष्यभक्षी सिंह अमुक गाँव में एक आदमी को उठा ले गया, फलाने गाँव में एक औरत को उठाकर खा गया। हाथ किसी के पड़ता नहीं था, इसलिए जन-परंपरा ने एक प्रेत की सृष्टि की। कहा जाने लगा कि एक जादूगर धोबी मरने के बाद नाना रूप धारण करके मनुष्य-भक्षण करने लगा है। बे-हथियारवाली जनता को विश्वास करने में देर नहीं लगी।
मैं शिकार खेलने प्रायः अपने मित्र के साथ जाया करता था। एक बार अकेला गया। सुना कि मनुष्यभक्षी प्रेत बेतवा नदीवाले गड्ढे के निकट, जिसका उपयोग मैं सदा ही करता था, आ गया है। मैंने सोचा, यदि प्रेत है तो शिकारी किसी भी भूत प्रेत से कम नहीं होता है, इसलिए कोई डर नहीं और यदि मनुष्यभक्षी सिंह है, जैसा कि मुझको विश्वास था कि है, तो देखा जाएगा। रात भर अनिमेष जागने का मुझको अभ्यास था और यह भरोसा था कि जागते हुए में मनुष्यभक्षी पशु - चाहे वह सिंह, नाहर या तेंदुआ हो मुझको सहज ही नहीं दबा पाएगा। सुनता आया कि मनुष्य को परमात्मा ने सारी सृष्टि रचने के उपरांत बनाया था।
मैं साँझ के पहले ही अपने चिर-परिचित गड्ढे में जा बैठा। जब संध्या हो गई, बिस्तरों में टॉर्च को ढूँढ़ा। उसको गाँव में ही भूल आया था और रात निपट अँधेरी थी। टॉर्च के लिए गाँव को लौटकर जाने और गड्ढे में वापस आने का अर्थ था चार मील, और यदि मार्ग में ही किसी झाड़ी की बगल से मनुष्यभक्षी सिंह ऊपर आ कूदा तो सारा शिकार बेहद किरकिरा हुआ।
बिस्तर फैलाकर गड्ढे में बैठ गया। ठंड के दिन थे। ओवरकोट पहना और कंबल से पैर ढक लिए। राइफल भरकर उसी पर रख ली और बीस कारतूसों का डिब्बा सामने रख लिया मानो मनुष्यभक्षी सिंह उनके एक अंश को भी चला लेने की मुहलत देता।
पहले तो अँधेरा बहुत बुरा लगा, फिर वह मेरा मित्र बन गया। यदि मैं मनुष्यभक्षी को बिना बहुत निकट आए नहीं देख सकता था तो वह भी तो मुझको नहीं देख सकता था। सूँघ जरूर सकता था; परंतु सूँघने के लिए उसको नाक से फूँ-फाँ करनी पड़ती, मैं सुन लेता और 'धाँय' करने के लिए पहले ही सावधान हो जाता। मैं सामने देखता अगल-बगल बैठे-बैठे और उझक-उझककर भी। मैंने अपने जीवन भर में इतनी चौकसी कभी नहीं की।
चौकसी करते-करते आधी रात हो गई। भय के अत्यंत निकट संसर्ग में आने के कारण मन में धुक-धुक बिलकुल न रही। राइफल हटाकर बगल में रख दी और अकड़े-सिकुड़े हए पैरों को सीधा करने के लिए लेट गया। तारों पर टकटकी जमाई।
बेतवा की धार चल रही थी। थी पतली ही। कंकड़ों से टकराकर धार एक बँधा हुआ शब्द कर रही थी। टिटिहरी बीच-बीच में बोल जाती थी। किनारे के ऊपरवाले पेड़ों पर बसेरा लिए हुए डोंके ठहर-ठहरकर टुहुक लगा जाते थे। झींगुर झनकार रहे थे। दूर जंगल से कभी चीतल का कूका और कभी साँभर की रेंक सुनाई पड़ जाती थी। कभी-कभी उल्लू और कभी चमगादड़ अपने पंख फड़फड़ाते इधर से उधर निकल जाते थे।
मुझे नींद का नाम न था।
रात का तीसरा पहर समाप्त होने को आ रहा था। मैं इस बीच में कई बार बैठ और लेट चुका था। मैं लेटा हुआ था जब पास ही छप-छप का शब्द सुनाई पड़ा। मैं तुरंत सावधानी के साथ बैठ गया। राइफल साधी और लिबलिबी पर उँगली रख दी। पानी की धार, जहाँ से छप-छप का शब्द सुनाई दिया था, मेरे गड्ढे से साठ-सत्तर फीट की दूर पर होगी। साँस रोककर प्रतीक्षा करने लगा।
गड्ढे के सामने एक आकार आया और रुका। आकार उतना लंबा और चौड़ा न था जितना मेरे अनुमान ने बना दिया था। अँधेरे में बिना निशाना लिए हुए मुझको राइफल चलाने का अभ्यास था, इसलिए मन में बहुत शंका न हुई। आकार ने फूँ-फाँ की। मुझको साफ सुनाई पड़ा। लिबलिबी का पर तुरंत उँगली दबी और जोर का 'धाँय' शब्द हुआ। जब तक 'धाँय' की गूँज दुगुन और तिगुन हुई, मैंने चटपट दूसरा कारतूस नाल में पहुँचा दिया। मैं दूसरा कारतूस भी फोड़ता, परंतु वह आकार धराशायी हो गया था, उसकी साँस जोर-जोर से चल रही थी। मुझको विश्वास हो गया कि साँसें कुछ पल की हैं। कुछ पल के बाद उसकी साँस बंद हो गई। वह समाप्त हो गया। परंतु इतना अँधेरा था कि अनुमान भी नहीं कर सकता था कि किस जानवर पर गोली चलाई है। इतना साहस नहीं कर सकता था कि गड्ढे को छोड़कर उसके पास जाता और अनुसंधान करता।
प्रातःकाल की प्रतीक्षा करने लगा।
प्रातःकाल के पहले पतले से चंद्रमा का उदय हुआ। परंतु उसके प्रकाश से कोई सहायता नहीं मिली। उसके धुँधले प्रकाश में गड्ढे के सामने पड़े हुए मृत पशु का आकार अनुमान से कुछ लंबा ही दिखता रहा।
ज्यों-ज्यों करके पौ फटी। उजाला हुआ। देखूँ तो मृत पशु लकड़बग्घा है। कारतूस को खराब करने का पछतावा नहीं हुआ। यदि वह मनुष्यभक्षी सिंह ही होता तो गोली तो ठिकाने से पड़ती लकड़बग्घे के गले से जरा हटकर जोड़ पर निशाना लगा था।
बिस्तर उठानेवाला सूर्योदय के बाद आ गया। लकड़बग्घे को देखकर वह हँसा। बोला, 'मैं खेत पर जाग रहा था, जब बंदूक का अर्राटा हुआ। सोचा था, कोई खाने लायक जानवर मरा होगा। यह तो कुछ भी न निकला।'
मैं कुछ और सोच रहा था। मेरे साथ लगभग अनिवार्य रूप से घूमनेवाले इस शिकारी का नाम दुर्जन कुम्हार था। बहादुर, कष्टसहिष्णु और बहुत हँसोड़।
बेतवा के भरकों में घूमते हुए एक दिन हम दोनों ने एक टीले के चौरस पर कुछ विलक्षण सी गठरियाँ लुढ़कती-पुढ़कती देखीं। छिपते-छिपते हम दोनों बहुत निकट पहुँच गए। देखें तो तीन-चार लकड़बग्घे किसी जानवर का भोजन कर रहे हैं। शायद गाँव के किसी आवारा कुत्ते को मार लाए थे। मेरे गाँठ में कुल पाँच कारतूस थे। तीन हिरनमार छर्रे के और दो चार नंबर के सरसों के दानों से भी छोटे छर्रेवाले। हिरनमार छर्रे से मैंने एक लकड़बग्घे को गिरा दिया। उसके गिरते ही बाकी वहाँ से भागे नहीं, बल्कि गिरे हुए लकड़बग्घे का रक्तपान करे लगे और उसको चीर-फाड़ भी डाला। मैने एक और गिराया। तीसरा लकड़बग्घा उस गिरे हुए पर चिपट गया और अपने बीभत्स कर्म में निरत हो गया। मैंने उस पर भी बंदूक चलाई और ओट छोड़ दी। वह गिर नहीं सका, घायल होकर भागा। तब एक कोने में चौथा लकड़बग्घा दिखलाई पड़ा। वह तुरंत भागकर एक माँद में जा घुसा। घायल लकड़बग्घा भरकों के बीच के एक छोटे से नाले में जा पड़ा। मैंने उसपर चार नंबर का बारीक छर्रा चलाया। उसका कोई घातक प्रभाव नहीं पड़ा; परंतु वह नाले में दुबक गया।
दुर्जन दौड़ता हुआ उसके पास पहुँचा। उसके पास पहुँचते ही घायल जानवर ने एक उचाट ली और दर्जन की ओर बढ़ा। दुर्जन ने चक्कर काटकर नाले को फाँदना चाहा। फाँदने में दुर्जन की कमर लचक गई और रीढ़ का एक गुरिया धमक खा गया।
'ओ मताई, खा लओ!' चिल्लाकर दुर्जन गिर पड़ा।
मैं जिस टीले पर खड़ा था, उसके नीचे एक छोटा टीला और था। उस टीले के नीचे नाला था। दुर्जन को गिरा देखकर लकड़बग्घा डरा और मेरी ओर आया। मेरे पास सिवाय चार नंबर के एक कारतूस के और कुछ न था। जैसे ही क्रुद्ध लकड़बग्घा आठ-दस फीट रह गया, मैंने उस पर चार नंबर का कारतूस चला दिया। वह खत्म हो गया। मैं दुर्जन को उठाकर गाँव ले आया। लकड़बग्घा जरूर बहुत डरपोक होता है; परंतु घायल होने पर दबे पाँव प्राण बचाने के लिए आक्रमण कर देता है।

13
अगली छुट्टी में मैं अपने मित्र शर्मा जी के साथ उसी गड्ढे में आ बैठा। चाँदनी नौ बजे के लगभग डूब गई। अँधेरे की कोई परवाह नहीं थी। एक से दो थे और टॉर्च भी साथ थी।
जिस घाट पर हम लोग गड्ढे में बैठा करते थे उससे ऊपर की ओर लगभग डेढ़ सौ गज पर एक घाट और था। वहाँ से होकर उसपर से चिरगाँव की हाट के लिए आन-जानेवाले लोग निकला करते थे। उनको कभी ज्यादा रात भी हो जाती थी; परंतु मनुष्यभक्षी सिंह के भयानक समाचारों के संध्या के उपरांत के आवागमन को बंद कर दिया था।
अँधेरा हो जाने पर मुझे आलस्य मालूम पड़ा। मैं सो गया। शर्मा जी पहरा देते रहे। शर्मा जी की बंदूक लगभग आधी रात गए चली - 'धाँय'। उधर से शब्द हुआ, 'ओ मताई, मर गओ!' मैं घबराकर उठ बैठा। कलेजा धक-धक करने लगा। टॉर्च जलाकर देखा तो एक आदमी सफेद रजाई ओढ़े हमारे गड्ढे की ओर आ रहा है। विश्वास हो गया कि मरा नहीं है; किंतु संदेह था, शायद घायल न हो। अनेक प्रश्न कर डाले। उसने कहा, 'बहुत बचे।'
हम लोग दुनाली से छर्रा न चलाने की शपथ सी बहुत पहले ले चुके थे। अब छर्रा कारतूस की पेटी में न रखने का निश्चय कर लिया।

14
मोर, नीलकंठ, तीतर, वनमुरगी, हरियल, चंडूल और लालमुनैया जंगल, पहाड़ और नदियों के सुनसान की शोभा हैं। इनके बोलों से - जब बगुलों और सारसों, पनडुब्बियों और कुरचों की पातें की पातें ऊँघते हुए पहाड़ों के ऊपर से निकल जाती हैं। प्रकृति में उल्लास भर जाता है। नीलकंठ और बगुले का मारना कानून में निषिद्ध है। मोर गाँव के निकट नहीं मारा जा सकता; चंडूल और लालमुनैया को कोई नहीं मारता; परंतु तीतर, वनमुरगी और हरियल के लिए तो खानेवाले ललकते से रहते हैं।
इनमें से केवल मोर खेती को हानि पहुँचाता है। ऐसा सुंदर पक्षी और गंहूँ चने इत्यादि को किस बुरी तरह खानेवाला। चना का पौधा उगा नहीं कि इसने उखाड़-उखाड़कर उसका सफाया किया। किसान जब इन सबकी मार से थक जाता है तब परिस्थितिजन्य संतोष के साथ कहता है - 'यदि इन सबसे पूरा अन्न बच जाय तो घर में रखने को जगह ही न रहे।'
सचमुच जगह न रहे, परंतु बच नहीं पाता। अधिक अन्न उत्पन्न हो जाय तो क्या किसान उसको फेंक देगा?
हरियल, पीपल, बरगद और ऊमर के पेड़ों पर अधिकतर दिखलाई पड़ता है। इसकी बारीक सीटी कभी-कभी मनुष्य की सीटी के भ्रम में डाल देती है; परंतु मनुष्य की बजाई हुई सीटी में विषमता होती है, इसकी सीटी लगातार एक सी बजती है। इसकी भूमि पर बैठा हुआ शायद ही किसी ने देखा हो; परंतु यह बैठता है - पानी पीने के लिए और दाने-चारे के लिए ही। इतना हरा-पीला होता है कि पेड़ों के हरे-हरे पत्तों में छिप जाता है। अधिकतर इसकी सीटी ही इसकी उपस्थिति का पता देती है।
तीतर सवेरे-शाम मार्गों, पकडंडियों और खुले मैदानों में, जहाँ ढोर गोबर छोड़ जाते हैं, पाया जाता है। यह ज्यादा नहीं उड़ सकता है। थोड़ी दूर उड़कर फिर तेजी के साथ पंजों के बल भागता है। तीतर दिन चढ़ते ही झाड़ी-झकूटों में जा छिपता है और संध्या के पहले लगभग चार बजे फिर अपने प्रवास से बाहर निकल पड़ता है।
इससे मिलती-जुलती एक चिड़िया भटतीतर होती है। इसका रंग मटमैला होता है। कटी हुई तिली के खेतों में बहुधा पाया जाता है। आहट पाकर खेत के कूँड़ों में यह ऐसा दबकर बैठ जाता है कि पास से भी नजर में नहीं आता। बहुत पास पहुँच जाने पर यह फड़फड़ाकर उड़ जाता है। भटतीतर बहुत ऊँची और लंबी उड़ान ले सकता है। स्वर इसका इतना तीक्ष्ण होता है कि ऊँची उड़ान पर से भी सुनाई पड़ जाता है।
वनमुरगी और पालतू मुरगी में ज्यादा अंतर नहीं है। बोली भी दोनों की लगभग एक सी होती है। पालतू मुरगी की बाँग कुछ लंबी खिंच जाती है, वनमुरगी की बाँग अधकटी सी होती है।
नीलकंठ शिकारी पक्षी है। इसका नीला रंग इतना सुंदर, इतना मोहक होता है कि वह शकुन का विषय बन गया है। पर इसकी बोली लटीफटी सी लगती है। कीड़ों-मकोड़ों का शिकार अधिकतर करता है; परंतु छोटी चिड़ियों से भी इसको कोई परहेज नहीं है - पंजे में पड़ जाय तो। चंडूल, लालमुनैया देखने में अच्छे और सुनने में तो कहना ही क्या है।
रात को तीसरे पहल जब ये पक्षी अपने मिठास भरे स्वरों का प्रवाह बहाते हैं, तब किसी भी बाजे से इनकी मोहकता की तौल नहीं की जा सकती। मैंने तो गड्ढों में बैठे-बैठे इनकी मनोहर तानों को सुनते-सुनते घंटों बिता दिए। बंदूक एक तरफ रख दी और इनके सुरीले बोलों पर ध्यान को अटका दिया। जानवर पास से निकल गए, परंतु मैंने बंदूक नहीं उठाई। ऐसा जादू पड़ गया कि मैंने कभी-कभी सोचा, खेतों की रखवाली का सारा ठेका क्या मैंने ही ले रखा है?

15
मध्य प्रदेश कहलाने वाले विंध्यखंड में ऊँची-ऊँची पर्वत श्रेणियाँ, विशाल जंगल, विकट नदियाँ और झीलें हैं। शिकारी जानवरों की प्रचुरता में तो यह हिंदुस्थान की नाक है। किसी समय विंध्यखंड में हाथी और गैंडा भी प्राप्य थे। विष्णुगुप्त चाणक्य ने तो इनका जिक्र किया ही है। अकबर के युग में भी ये प्राप्य थे और आज से लगभग सौ वर्ष पहले तक इनकी उपस्थिति के प्रमाण मिलते हैं। अब तो इनका शिकार खेलने के लिए हमारे यहाँ के साधनसंपन्न शिकारियों को हिमालय की तराई और असम के जंगलों में जाना पड़ता है।
अब भी विंध्यखंड के जंगलों में जो कुछ है, कुतूहल के लिए बहुत है। बंगाल का नाहर अपने बल-विक्रम और सौंदर्य के लिए विख्यात है; परंतु मंडला, बालाघाट और बिलासपुर के जंगलों में उससे भी बड़े शेर पाए जाते हैं। शिकार संबंधी एक पुरानी पुस्तक में मैंने बारह फीट की लंबाईवाले शेरों का हाल पढ़ा है। अब भी दस-ग्यारह फीट की लंबाई वाले दुष्प्राप्य नहीं हैं। बड़े-बड़े भालू, अरने भैंसे, काले रंग के तेंदुए और जंगली कुत्ते इन जंगलों में बहुतायत से पाए जाते हैं।
बिलासपुर जिले में एक साधन के सहारे हम लोग कई मित्र एक दिन जा पहुँचे। रात को छकड़े किराए पर किए। दूसरे दिन, 'नानबीरा' नामक गाँव में पहुँचना था। सवेरा होने पर मार्ग में 'सरगबुंदिया' नाम का गाँव मिला। इस गाँव का नाम सरगबुंदिया - स्वर्गबिंदु क्यों पड़ा, मुझको इस बात की खोज करने का मोह हुआ। गाँव में दो पोखर थे। दोनों में लोग नहाते थे और उसका पानी भी पीते ते। आस पास पानी का और कोई ठिकाना न था। कम-से-कम, गरमियों की ऋतु में, मुझको नहीं दिखलाई पड़ा। गाँव खासा था और पानी के केवल दो पोखर। मैंने सोचा, स्वर्ग की ये दो बूँदें इस गाँव को सरगबुंदिया की संज्ञा प्रदान कर रही हैं।
सरगबुंदिया में अपना भोजन और उसका पानी पीकर हम लोग संध्या के पहले नानबीरा पहुँच गए। जंगलों, पहाड़ों से घिरा हुआ नानबीरा बड़ा गाँव है। वहाँ एक स्कूल भी है। ईस्टर की छुट्टियों के कारण स्कूल बंद था। हम लोगों के पास बिलासपुर जिला बोर्ड के एक कर्मचारी - श्री मानिकम् थे। उनकी कृपा से स्कूल में ठहरने की सुविधा मिल गई। जब हम लोग स्कूल के अहाते में पहुँचे, कुछ लड़के खेल रहे थे। लड़के संकोच में आकर वहाँ से खिसकने को हुए। मैंने रोक लिया। थोड़ी सी बातचीत की।
मैंने पूछा, 'तुम लोगों ने शेर देखा है?'
उत्तर मिला, 'हाँ।'
'भालू, तेंदुआ, भेड़िया?'
'सब देखे हैं।'
'तुम लोग मांस खाते हो?'
'हाँ।'
'किस-किस का?'
इस पर लड़के एक-दूसरे का मुँह ताककर हँसने लगे।
मैंने अनुरोध किया, 'सकुचो मत। बतलाओ?'
एक लड़का बोला, 'ये लोग चूहा और कौआ भी भी खाते हैं। हम लोग नहीं खाते।'
'चूहा और कौआ!' मुझको आश्चर्य हुआ।
मैंने प्रश्न किया, 'तुम लोग कौन, जो चूहा और कौआ नहीं खाते?'
'मुसलमान।' उस लड़के ने उत्तर दिया।
'और ये लोग कौन हैं, जिन्हें चूहा और कौआ भी हजम है?' मैंने पूछा।
लड़के ने हँसकर उन लोगों की जाति बतलाई।
मैंने कहा, 'तब तो तुम्हारे घरों में भी चूहे और जंगलों में कौए होंगे ही नहीं।'
बाकी लड़के भी वार्तालाप में भाग लेने लगे।
एक हिंदु बालक बोला, 'चूहे तो बहुत हैं, पर जंगलों में कौए बहुत नहीं हैं।'
मुझे झाँसी जिले के कौओं की याद आ गई। कुआर के महीने में नगरों और कस्बों में तो इनकी काँव-काँव के मारे नाको दम आ ही जाता है, जंगलों में इनके झुंड़ों के मारे संध्या बेसुरे कोलाहाल के मारे बेचैन सी हो जाती है। एक झुंड में ही सैकड़ों-हजारों। बगीचों के फलों और खेतों के अनाज को नष्ट करने में ये तोतों को भी मात दे देते हैं। मैंने सोचा, या तो नानबीरा हमारे यहाँ पहुँच जाएँ या हमारे यहाँ के कौए नानबीरा की ओर पधार जाएँ तो निष्कृत मिले। परंतु इसस प्रकार तो समस्या हल होती नहीं।
रात के जागे और दिन के थके थे, इसलिए रात भर मजे में सोए।
सवेरे लगभग सौ गोंड, कोल और बैगा हम लोगों के पास आ गए। शिकार उनका जीवन और मनोरंजन है। खेती कम और जंगल अधिक सहारा है।
उनके केश सुंदर और कंघी किए हुए। शरीर दृढ़ मांसल, रग-पुट्ठे वाले- और चिकने। छोटी धोती, लँगोट या जाँघिया कसे हुए। किसी किसी के हाथ में चाँदी के चूड़े। अधिकांश तीर कमान कसे हुए। बहुतेरों के कंधे पर तेज धारवाली कुल्हाड़ी - वे उसे 'टँगिया' कहते थे। कुछ के हाथ में लाठियाँ और छोटे बरछे। उनमें से थोड़े से ढोल और ताशे भी लिए थे।
उनके बीच में एक मटका रखा हुआ था। मटके में महुए की शराब थी। वे थोड़ी-थोड़ी चुल्लुओं पी रहे थे। मेरे मन में आया, इनको एक व्याख्यान देकर सुधार की भावना जाग्रत करूँ। तुरंत भीतर मैंने कुछ टटोला। मैं व्याख्यान देनेवाला कौन? यदि इनको अधिक भोजन, अधिक पैसे, अधिक शिक्षा, अधिक कपड़े, दवा-दारू और अच्छी दिशा दे सकूँ तो इनका देशवासी कहलाने की पात्रता रख सकता हूँ, नहीं तो ये जैसे हैं मुझसे अच्छे हैं। चेहरे पर सहज मुस्कान है; भाव इनका सीधा, सरल, निर्भीकता से भरा हुआ है। हम इनसे कुछ ले सकते हैं, दे इन्हें क्या सकते हैं?
सुधार की भावना को ताक में रखकर मैं उनके बीच में पहुँच गया। जाग्रत मानव के सब हर्ष, समग्र ओज उनमें मौजूद थे- कठिनाइयों और पीड़ाओं, विपत्तियों और दुःखों से लड़ जाने का मनोबल उनमें प्रतीत होता है।
शहर के अधकचरे, अधबुझे हम लोग श्रद्धा के मारे झुक गए।
उनके अगुआ से शिकार के कार्यक्रम पर बातचीत होने लगी। उसने हाँके के लिए एक विशेष पहाड़ को चुना। आशा की गई कि शेर और भालू मिलेंगे।
हम लोग पहाड़ की ओर चल दिए। लगान लगानेवाले ने बंदूकवालों को यथास्थान खड़ा कर दिया। मैं अपने एक मित्र के साथ ऐसे स्थान पर खड़ा किया गया जहाँ महीने-डेढ़ महीने पहले एक अँगरेज स्त्री को शेर ने हाँके से निकलकर चबा डाला था। जगह-जगह पेड़ों पर मचान बँधी हुई थी। शेर के शिकार का अनुभव नहीं था, इसलिए हम लोग मचान पर नहीं गए, नीचे ही खड़े रहे। पहाड़ की तली में थे। पहाड़ पर से हँकाई होती आ रही थी।
ढोल, ताशों और कई प्रकार के वाद्यों का तुमुल नाद होता चला आ रहा था। हम लोग प्रतीक्षा की धुकधुकी में खड़े थे अपने-अपने स्थानों पर। मेरे अन्य मित्रों की भी यही अवस्था रही होगी।
इस हँकाई में एक सुअर के सिवाय और कुछ नहीं निकला। यह सुअर हमारे लगान के सामने उँचाई पर से निकला। 'धाँय-धाँय!' हम दोनों ने एक साथ बंदूकें चलाईं। सुअर के अगले जोड़ पर दोनों गोलियाँ पड़ी। दोनों मे केवल दो इंच का अतर था। हाँकेवाले उत्सुकता के साथ हम लोगों के पास आए। सुअर को पाकर वे बहुत प्रसन्न हुए।
दूसरी हँकाई के लिए आध मील दूरी पर एक और पहाड़ चुना गया। अब की बार हम लोग अत्यंत असावधानी के साथ खड़े हो गए। किसी किसी ने तो केवल पेड़ की ओट ले ली। हम दोनों ने आम पेड़ के पत्ते तोड़कर आड़ बना ली ऐसी कि उसको खरहा भी तोड़ डालता।
हँकाई होने के थोड़े ही समय बाद एक और बंदूक चली, फिर एक और। सामने से दो बड़े रीछ आते हुए दिखलाई पड़े। मेरी बगल में कुछ फासले पर एक आया। मेरे साथी मित्र की पहली गोली से घायल होकर वह लौटा और वे स्थान छोड़कर उसके पीछे दौड़े। उन्होंने भागते हुए रीछ पर गोलियों की वर्षा कर दी। बारह-तेरह चलाईं; परंतु लगी एक भी नहीं। रीछ परेशान होकर एक पेड़ पर चढ़ा।
वह सीधा ही चढ़ा, बड़ी फुरती के साथ। लोगों का खयाल है कि रीछ उलटा चढ़ता है। यह गलत है। वह उलटा भी चढ़ सकता होगा, परंतु साधारणतया चढ़ता सीधा ही है।
मेरे मित्र ने एक गोली और चलाई। रीछ नीचे आ गिरा।
फिर एक हँकाई और हुई। दूसरे दिन भी हँकाईयाँ हुई; परंतु मिला कुछ नहीं। हाँ रीछों के कुछ अद्भुत किस्से जरूर सुनने को मिले। उनमें से एक विलक्षण था।
एक अँगरेज शेर के शिकार के लिए आया। मचान पर अकेला जा बैठा। नीचे किसी मरे हुए जानवर का गायरा रख लिया था। कुछ रात बीतने पर गायरे के पास एक रीछ आया। रीछ ने गायरे को सूँघा था कि झाड़ी के पीछे छिपे हुए शेर ने रीछ पर तड़प लगाई। रीछ बलबलाता हुआ भागा और पेड़ पर चढ़ गया और मचान की ओर बढ़ा, जहाँ अँगरेज शिकारी बैठा हुआ था। मारे डर के अँगरेज की जो हालत हुई होगी उसका तो अनुमान किया जा सकता है, परंतु ऐसे अप्रत्याशित स्थान पर आदमी को बैठे देखकर रीछ की जो दशा हुई उसका प्रयत्क्ष फल यह हुआ कि वह हड़बड़ाकर नीचे जा गिरा। शेर ने उसको समाप्त कर दिया। ऊपर से जो गोली पड़ी तो शेर उससे समाप्त हो गया।
जंगलों में शेर इत्यादि की जो कहानियाँ सुनने को मिलती हैं। उनमें से अधिकांश का आधार सच होता है; परंतु कुछ नितांत कल्पनाप्रसूत होती हैं।
जंगल के रहनेवाले लोगों में जितने भालू के नाखूनों से घायल होते हैं उतने और किसी से नहीं। इसके नाखून पंजे की गंद्दी से बाहर निकले रहते हैं और बहुत लंबे होते हैं। यह आसानी के साथ पालतु कर लिया जाता है; परंतु जंगली अवस्था में काफी दुःखदायक होता है। शरीर का छोटा, परंतु बाल बड़े-बड़े होने के कारण विहंगम दिखलाई पड़ता है। जड़ों और फलों का प्रेमी होता है। पेड़ों पर चढ़कर आराम के साथ शहद तोड़ खाता है। मधुमक्खियाँ इसका कुछ नहीं बिगाड़ पातीं, क्योंकि काटने के प्रयत्नों में उसके बालों में ही उलझ जाना पड़ता है। किसी की खाल पर जीभ को कसकर फेरे तो खून निकल आवे। कुछ लोगों की कल्पना है कि यह हाथों में लपेटकर, आदमी से चिपटकर थूक से अँधा कर देता है और उसका कचूमर निकाल देता है। इसके थूक में ऐसा कोई विष नहीं होता है, और क्रोध में सभी पशु मुँह से झाग फेंक उठते हैं। चिपट जरूर यह जाता है और नाखूनों से बेतरह चीड़-फाड़ करता है। इसको सुनाई कम पड़ता है। आँख के ऊपर बालों के लटकने के कारण देख भी अच्छी तरह नहीं पाता। जाड़ों में झोरों और लंबी घास वाले मैदानों में पड़ा रहता है। जहाँ कोई असावधान मनुष्य पास तक पहुँचा कि यह जागा और चिपट पड़ा। मनुष्य ने देख नहीं पाया। और भालू ने दूर से ही आहट नहीं ले पाई, फल भालू का घोर और विकट आलिंगन। यदि उस आलिंगन से प्राण न निकले तो कई सप्ताह अस्पताल का सेवन तो करना ही पड़ता है।
गाँवों और नगरों में जिस रीछ का पीछा बच्चे हा हा, हू-हू नहीं अघाते और वह बिलकुल नहीं चिढ़ता, जंगल का तोहफा होते हुए भी प्रकृत्ति में अपने भाईबंदों से बिलकुल अलग पड़ जाता है। इतने सीधे जानवर की ऐसी निंदा! पर वह है यथार्थ।

16
एक बार विंध्यखंड के किसी सघन वन का भ्रमण करने के बाद फिर बार-बार भ्रमण की लालसा होती है। इसलिए सन् 1934 के लगभग मैं कुछ मित्रों के साथ मंडला गया।
मंडला की रेलयात्रा स्वयं एक प्रमोद थी। पहाड़ी में होकर रेल घूमती, कतराती गई थी। गहरे-गहरे खड्ड, गरमियों में भी जल भरे नदी-नाले और कौतुकों से भरी हुई नर्मदा। मंडला जिले में ही तो कान्हाकिसली का विशाल, किंतु वर्जित जंगल है। मंडला जिले में ही छोटे से सुंदर नाम और बड़े दर्शनवाला - मोती नाला है। नाम 'मोती नाला' ही है, परंतु इस नाम का जंगल बड़ा और विस्तृत, विहंगम और बीहड़ है। मोती नाला के जंगल में शेर बहुतायत से पाए जाते हैं। मार्ग में 'जगमंडल' नाम का बड़ा वन मिलता है। सरही और सागौन के भीमकाय वृक्ष भरे पड़े हैं। जल भरे नदी नालों की कोई कमी नहीं।
जगमंडल नाम के जंगल में भी शेरों की काफी संख्या है। साँभर, चीतल, वाइसन और भैंसे भी मिलते हैं।
एक दिन तो हम लोग टोह-टाप में लगे रहे। जिस नाले में निकल जाएँ उसी में शेरों के पदचिह्न। एक नाले में दोनों किनारों से आड़ी पगडंडियाँ पड़ गई थीं। वहाँ पर रेत में शेरों के इतने निशान मिले कि हम लोग अचरज में डूब गए। झाँसी जिले के नालों में जैसे ढोरों के निशान मिलते हैं वैसे शेरों के मिले। कुशल यही रही कि नालों की घास में कोई शेर पड़ा हुआ नहीं मिला।
हम लोगों को ठहरने के लिए जंगल विभाग की एक चौकी मिल गई थी। साधन संपन्न जंगलों में डेरे तंबू लगाते हैं; परंतु इनकी टीमटाम देखकर अल्प साधनवाले मनचले शिकारी हतोत्साहित हो जाते हैं। वे सोचते हैं, न इतना साज सामान होगा, न बड़े जंगलों का भ्रमण और जंगलों का शिकार उपलब्ध होगा। मैं भी नहीं जा सकता था; परंतु मेरे एक निकट संबंधी इन जिलों में बड़े पद पर थे, इसलिए एक दरी और एक चादर लेकर झाँसी से बाहर निकल पड़ता था। उनका निषेध है, इसलिए नाम लेकर कृतज्ञतापन तक से विवश हूँ।
दूसरे दिन दुपहरी में भटक-भटककर हम लोग डेरे पर आ गए। साथ में मंडला से आटा ले आए थे; क्योंकि इस ओर गाँव में दाल-चावल और मिर्च-मसाला तो मिल जाता है, परंतु आटा दुर्लभ है। भोजन शुरू ही किया था कि एक गोंड ने आकर समाचार दिया - नाहर ने गायरा किया है। उसकी बोली में - 'नाहर गायरा किहिस।'
पत्तल छोड़कर हम लोग उठ बैठे। उस समय तीन बजे होंगे। मचान बाँधने का सामान, रस्से, पानी का घड़ा और बिस्तर इत्यादि साथ लिए और चल दिए।
एक नाले में झाँस के नीचे एक बड़ा बैल दबा पड़ा था। उस बैल की कहानी कष्टपूर्ण थी। उस जंगल में रेलवे लाइन पर बिछाए जानेवाले शहतीर स्लीपर काटे जा रहे थे और जबलपुर के लिए ढोए जा रहे थे। जबलपुर से एक गाड़ीवाला शहतीरों को ढोने के लिए अपनी गाड़ी लाया। शहतीरों तक नहीं जा पाया था, मार्ग में एक पानीवाला नाला मिला। गाड़ीवाला ने बैल ढील दिए और पुल के नीचे एक चट्टान पर खाना बनाने लगा। बैल जरा भटककर डाँग में चले गए। उनमें से एक को सेर ने मार डाला। उसको सेर उठाकर लगभग तीन फलाँग की दूरी पर ले गया और झाँस के नीचे एक छोटे से नाले में दाब दिया। उस समय उसने बैल को बिलकुल नहीं खाया। सोचा होगा, रात आने पर सुभीते में खाएँगे।
बैल को नाले में से निकलवाया। छह आदमी उसको बाहर निकाल सके। लगभग साठ डग पर एक ऊँचा बरगद का पेड़ था। नीचे जरा हटकर आम और तेंदू के छोटे-छोटे गुल्ले थे। इनको साफ करवाकर एक पेड़ के ठूँठ की खूँटी का रूप दिया गया। बाँस के खपचे निकालकर उनसे बैल को पेड़ के ठूँठ से जकड़कर बाँध दिया गया।
मैंने बाँधनेवालों से पूछा, 'इन खपचों को तोड़कर सेर बैल को उठा तो नहीं ले जाएगा?'
उन लोगों तान-तानकर खपचों को खींचा और आश्वासन दिया- 'शेर इन खपचों को कैसे भी झटके से नहीं तोड़ सकेगा।'
मेरे सामने से एक बार तेंदुआ रस्सी तोड़कर बकरे को उठा ले गया था। मैं उस जगह उस अनुभव को दुहराना नहीं चाहता था।
गोंडों और कोलों के आश्वासन को मैंने मान लिया। उसका तद्विषयक अनुभव काफी था। हम लोगों को उनकी बात पर संदेह करने के लिए कोई कारण न था।
उस रात चैत की पूर्णिमा थी। दिन में गरमी रही, परंतु रात का सलोना सुहावनापन तो अनुभव के ही योग्य था। चारों ओर से महक भरे मंद झकोरे आ रहे थे। कहीं से चीतल की कूक और कहीं से साँभर की रेंक सुनाई पड़ रही थी। सियार भी कभी 'फे' कर जाता था।
हमारी मचान भूमि से लगभग पच्चीस फीट की ऊँचाई पर थी। मचान लंबी-चौड़ी थी, सीधे डंडों से पूरी हुई। ऊपर गद्दा और दरी। एक ओर डालों के तिफंसे में जल भरा घड़ा और कटोरा रखा था। मचान एक ओर से खुली हुई थी और तीन ओर से पत्तों से आच्छादित। उस पर केवल रीछ चढ़कर आ सकता था; शायद तेंदुआ भी - क्योंकि मैंने तेंदुए को अपनी आँखों पेड़ पर सहज गति से चढ़ते देखा है परंतु शेर चढ़कर नहीं आ सकता था। मचान के सिरहाने की तरफ मैं बैठा था, दूसरी ओर मेरे मित्र शर्माजी। मेरे सामने का भाग ज्यादा खुला था, शर्मा जी के सामने का कम।
मेरे अन्य मित्र काफी दूर अन्य मचानों पर थे।
आठ बज गए। चाँदनी खूब छिटक आई। मेरे सामने सौ गज तक खुला हुआ मैदान था, फिर घनी झाड़ी शुरू हुई थी।
आठ बजे के उपरांत इस खुले हुए मैदान में लगभग अस्सी गज की दूरी पर एक सफेद सफेद सा ढेर दिखलाई पड़ा। मैंने आँखों को गड़ाया। वह ढेर स्थित था। सोचा, आँखों का भ्रम है। कुछ मिनट बाद वह ढेर हिला और मचान की ओर थोड़ा सा बढ़ा। विश्वास हो गया कि शेर है और बंदूक की अनी पर आ रहा है। मैंने शर्मा जी को इशारा किया। उन्होंने ने भी अपने झाँके में होकर देखा। वह लगभग आधे घंटे तक ठिठकता-ठिठकता सा चला। फिर उसने उस नाले पर छलाँग भरी, जिसमें वह दिन में मारे हुए बैल को ठूँस आया था। इसके उपरांत वह दृष्टि से लोप हो गया। बाट जोहते-जोहते ग्यारह बज गए। चाँदनी निखरकर छिटक गई थी। ठंडी-ठंडी हवा चल रही थी। शर्मा जी ने सिर और आँखों पर हाथ फेरकर नींद की विवशता प्रकट की। मेरे भी सिर में दर्द था। हम दोनों लेट गए। मैंने सोचा, गायरा प्रबल खपचों से बँधा हुआ है। शेर आकर जब बैल के उठाने का उत्कट प्रयत्न करेगा, हम लोग सोते ही न पड़े रहेंगे। लेटते ही सो गए, क्योंकि मचान पर किसी विशेष संकट की आशंका न थी।
चाँदनी ठीक ऊपर चढ़कर थोड़ी सी वक्र हो गई थी। एक बजा था, जब मुझको पेड़ के नीचे कुछ आहट मालूम पड़ी। मैं यकायक उठकर नहीं बैठा। मचान पर का जरा सा भी शब्द सुनकर यदि शेर होगा तो फिर नहीं आएगा- शायद महीने-पंद्रह दिन तक न आवे; क्योंकि शेर तेंदुए की तरह ढीठ नहीं होता। मैं बहुत धीरे-धीरे उठा। आँखें मलकर मचान के नीचे झाँका। कोई दो छोटे जानवर बरगद की सूखी पत्तियों को रौंद-रौंदकर बैल की घात लगा रहे थे। बैल को भी देखा संदेह था, कहीं उस समय शेर उसको न घसीट ले गया हो, जब सो रहे थे। बैल समूचा पड़ा था। शेर उसके पास नहीं आया था।
मैं कुछ क्षण ही इस तरह बैठा था कि सामने से शेर आता दिखलाई पड़ा। शेर के आने के पहले ही वे दोनों जानवर भाग गए। मैं जब लेटा था, मैंने अपनी राइफल का तकिया बनाया था। शर्मा जी दुनाली बंदूक छाती पर रखे हुए सो रहे थे। मैं राइफल को उठाने के लिए मुड़ नहीं सकता था। मुड़ते ही मेरी गति को शेर देख लेता और भाग जाता, सारी कमी कमाई मेहनत और लालसा व्यर्थ जाती। मैंने शर्मा जी की छाती पर से धीरे से दुनाली उठा ली। उनको जगाने का समय तो था ही नहीं। बंदूक के घोड़े चढ़े हुए थे और नालों में गोलियों के कारतूस पड़े थे। परंतु मुझे अपनी राइफल का अधिक भरोसा रहा है; लेकिन उस मौके पर राइफल उठाना मेरे लिए संभव न था। दुनाली लेकर मैंने बैल पर सीधी कर ली। झुक गया और एकाग्र दृष्टि से अपनी ओर आते हुए शेर को देखने लगा।
शेर बड़ी मस्त चाल से आ रहा था। बगल की पहाड़ी पर पतोखी बोली। अलसाते-अलसाते उठाते हुए अपने भारी पैरों को शेर ने एकदम सिकोड़ा, बिजली की तरह गरदन मरोड़ी, पीछे के पैरों को सधा और जिस पतोखी बोली थी उस ओर एकटक देखने लगा। जब वह उस ओर से निश्चिंत हो गया तब मचान की ओर बढ़ा।
खरी चाँदनी में उसकी छोहें स्पष्ट दिख रही थीं। सफेद भाल और छपके चमक रहे थे। भारी भरकम सिर की बगलों में छोटे-छोटे कान विलक्षण जान पड़ते थे। शेर जरा सा मुड़ा, तब उसके भयंकर पंजे और भयानक बाहु और कंधे दिखलाई पड़े। गरदन जबरदस्त मोटी और सिर से पीठ तक ढालू। उसके पुट्ठों को देखकर मन पर आतंक सा छा गया। सोचा, यदि बड़े-से-बड़ा खिसारा सुअर इससे भिड़ जाय तो कितनी देर ठहरेगा? परंतु सुअर इससे भिड़ जाता है और देर तक सामना भी करता है।
शेर फिर मचान के सामने सीधा हुआ। उसने मेरी ओर गरदन उठाई। चद्रंमा के प्रकाश में उसकी आँखें जल रही थीं। वह टकटकी लगाकर मेरी ओर देखने लगा और मैं तो आँख गड़ाकर उसकी ओर पहले से ही देख रहा था। एक क्षण के लिए मन चाहा कि गोली छोड़ दूँ; परंतु जंगल का शेर और इतना बड़ा जीवन में पहली बार देखा था, इसलिए मन में उसको देखते रहने का लालच उमड़ा। कभी उसके सिर और कभी उसकी छाती तो देखता था। ऐसी चौड़ी छाती जैसी किसी भी जानवर की न होती होगी।
शेर कई पल मेरी ओर देखता रहा। उसको संदेह था। वह जानना चाहता था कि मैं हूँ कौन? पर मैं अडिग और अटल था। उसको बाल बराबर भी हिलता नहीं देखा। जब शेर मेरा निरीक्षण कर चुका तब बैल के पास गया। उसने अपना भारी जबड़ा बैल के ऊपर रखा और दाढ़े गड़ाकर एक झटका दिया। एक ही झटके में कई आदमियों के बाँधे हुए बाँस के खपचे तड़ाक से टूट गए। दूसरी बार मुँह हाल कर जो उसने झटका दिया तो बैल तीन-चार हाथ की दूरी पर जा गिरा। इस समय उसकी पीठ मेरी ओर थी। उसने बैल को एक और झटका दिया। बैल चार-पाँच डग पर जाकर गिरा। मुझको लगा, अब यह चला। सवेरे जब मित्रगण इकट्ठे होंगे तब मेरी इस बात को कोई न सुनेगा कि मैं शेर की लोचों का अध्ययन कर रहा था सब कहेंगे कि मैं डर गया था। मैं मनाने लगा कि किसी तरह यह मेरे सामने अपनी छाती फेरे।
सेर ने कुछ क्षण के लिए मेरे सामने अपनी छाती की। बंदूक तो मिली हुई हाथ में थी ही। मैंने गोली छोड़ी। शेर ने काफी ऊँची उछाल लेकर गर्जन किया। शर्मा जी जाग उठे। उन्होंने भी सुना और देखा।
शेर ने नीचे गिरकर तुरंत एक तिरछी उचाट ली और आँखों से ओझल हो गया।
उसी समय मचान से उतरकर अनुसंधान करने का सवाल ही न था; क्योंकि कुछ पहले इसी प्रकार का प्रयत्न करते हुए इलाहाबाद के एक अँगरेज वकील श्री डिलन फाड़ डाले गए थे; और जैसा कि दो दिन बाद मंडला पहुँचकर हम लोगों ने सुना, कलकत्ता हाई कोर्ट के जज श्री चौधरी के भाई जो वकील थे इसी जंगल से कुछ मील दूर इसी रात इसी प्रकार के प्रयत्न में मार डाले गए थे।
हम लोग मचान से नहीं उतरे। बातें करते-करते सवेरा हो गया। हम लोगों के मचान से उतरने के पहले ही मित्र लोग वहाँ आ गए। आते ही उन्होंने भूमि का निरीक्षण किया। जहाँ गोली चली थी वहाँ खून की एक बूँद भी न थी।
एक साहब बोले, 'गोली चूक गई।'
मैंने कहा, 'असंभव।'
नीचे उतरकर देखा, शेर के खून की बूँदें मिलीं। जरा आगे बढ़े कि हड्डी के टुकड़े, और आगे बढ़े तो खून की धार। परंतु हड्डियों के टुकड़े और रक्त की धार लगभग आधा मील तक मिली। एक नाले में उसने पानी पिया और नाले के उस पार के जंगल की लंबी घनी घास में विलीन हो गया। कई दिन बाद उसकी लाश सड़ी हुई मिली। गोली हँसुली की हड्डी पर पड़ी थी। चोट करारी थी, परंतु फिर भी वह इतनी दूर निकल गया।
दूसरे दिन उसी मरे बैल के गायरे को बाँधकर शर्मा जी और मैं बरगद के मचान पर जा बैठे। रात भर जागते रहे, लेकिन मचान तले कोई भी नहीं आया। परंतु अन्य मित्रों को विचित्र अनुभव प्राप्त हुए।
कई मित्र मचान बाँधकर पानी के पोखरे के पास बैठे थे। शुद्ध चाँदनी रात थी। खूब दिखलाई पड़ता था। पोखरे पर पहले दो बाइसन आए। बाइसन के मारने की मनाही थी, इसलिए गोली नहीं चलाई गई। उनके उपरांत एक शेर आया। मित्र को सिगरेट पीने की थी आदत। इधर सिगरेट ने खाँसी पैदा की, उधर शेर छलाँग भरकर ओझल हो गया।
दूसरे मित्र भी एक सज्जन के साथ मचान पर बैठे थे, और यह मचान मैंने ही बँधवाई थी। मचान एक गहरे और चौड़े नाले के किनारे के एक पेड़ पर थी। नाले में पानी न था, परंतु जानवरों के निकलने का उधर होकर मार्ग था।
जब मैं नाले में खड़ा हुआ तब वह पेड़ काफी ऊँचा दिखलाई दिया। मैंने सोचा, इस पर का मचान बिलकुल सुरक्षित रहेगा। पर वह पेड़ किनारे के धरातल से केवल दस-ग्यारह फीट ही ऊँचा था।
दिन में मचान बाँधे जाने के बाद हम लोग सब अपनी-अपनी जगह जा बैठे। जब सवेरे सब लोग मिले, नाले की ढीवाले मचान के शिकारियों का अनुभव सुनकर हम सबको दंग रह जाना पड़ा। उन्होंने बतलाया -
'नौ बजे के लगभग मचान के पास गुरगुराने की आहट मिली। हम लोग सावधान होकर उस दिशा की ओर देखने लगे, जहाँ से गुरगुराहट सुनाई पड़ी थी। कुछ ही क्षण बाद एक बड़ी शेरनी अपने दो बच्चों के साथ धीरे-धीरे झूमती-झूमती मचान के नीचे आई। बच्चे कलोल में थे और गुरगुरा रहे थे। शेरनी मचान के नीचे बैठ गई। वह जरा सी उठाल लेकर मचान पर बैठे हुए शिकारियों के नीचे पटक ला सकती थी। शेरनी के बच्चे कभी आपस में उलझते और लिपटते, तो कभी शेरनी के भारी शरीर को अपने खेल-कूद का अखाड़ा बनाते। जब दूरी से चीतल या साँभर की आवाज आती तो शेरनी अपने पंजे की मुलायम गद्दी से बच्चों को चुपका कर देती और जबड़े को जमीन से सटाकर ध्यान के साथ कुछ सुनती और देखती। चंचल बच्चे जब उसकी गहरी बगलों में से, उतावले होकर, जंगल के जगत का कारबार समझने के लिए सिर उठाते, वह पंजे की गद्दीदार ठोकर से उनको बुद्धि देने का प्रयास करती। एक बार एक बच्चा कूदने-फाँदने के लिए विकल हो गया तो शेरनी ने हलकी सी चपत जमा दी। चपत ने उस बच्चे को कुछ समझदारी दी और कुनमुनाकर अपनी माँ की बगल में सट गया। थोड़ी देर में नाले के उस पार पेड़ों की छाया में एक बड़ा आकार आया। समझ में नहीं आया, क्या था। शेरनी उस आकार को देखकर फरफराकर खड़ी हो गई और उसने अपने गले में जिस स्वर को दबाकर नाक से निकला, वह बहुत दूर से सुनाई पड़नेवाली भूकंप की सी आवाज थी। मचान पर बैठे एक शिकारी ने बंदूक पर उँगली पसारी। दूसरे शिकारी ने हाथ पकड़ लिया। बिलकुल संभव यह था कि शेरनी केवल घायल होती और निश्चित यह था कि वह घायल होकर मचानवाले किसी भी शिकारी को न छोड़ती।'
मचान बँधवाने के समय मेरे मन में, पेड़ की ऊँचाई के विषय में, नाले की गहराई में खड़े रहने के कारण भ्रम हो गया था। वैसे वह मचान तो तेंदुए के भी शिकार के योग्य न थी।
बाहर फीट की ऊँचाईवाली मचान से तो एक बार नयागाँव छावनी के पास तिंदरी पहाड़ी के नीचे एक पेड़ पर मचान बाँधकर बैठे हुए शिकारी को घायल होते ही तेंदुए ने उछलकर नीचे पटक लिया था और उसके टुकड़े-टुकड़े कर डाले थे। फिर शेर के लिए यह मचान केवल दस-ग्यारह फीट की ही ऊँचाई पर थी। बंदूक चल जाती तो गजब हो जाता।
एक चौथी मचान और थी। उस मचान को एक बिलकुल बेढंगी सुनसान जगह में बाँधने की सूझ शिकारी को उसकी झक ने दी थी। शिकारी बिलकुल अकेले, बहुत दूर और बिलकुल बीहड़ झाड़ी में बैठना चाहते थे - शेर वहाँ आए, चाहे न आए।
शेर तो क्या, उनके मचान के पास एक चूहा भी नहीं आया। लाल आँखों सवेरा हुआ।
इसके बाद मैं अनेक बार अमरकंटक पहाड़ पर शेर के लिए गया। अमरकंटक पहाड़ के पठार के समतल पर एक छोटा सा खेत है। उसकी पश्चिमी दरार आगे चलकर नर्मदा बनी है और पूर्ववाली सोन। मजे में अपने दोनों पैर दोनों दरारों पर रखे जा सकते हैं; परंतु कुछ मील जाकर उस पठार पर से दोनों के भयंकर प्रपात हैं। अमरकंटक पर कुछ पेड़ ऐसे मिले, जिनके पत्तों से जून के महीने में रात्रि के समय बारीक फुहार झरती थी। वहीं मलिनियाँ नाम की एक बेल देखी, जिसमें लाल-लाल छोटे-छोटे फल लगे थे। हम लोगों ने फल चखे, स्वादिष्ट लगे। ग्रीष्म ऋतु में बघेलखंड के अनेक किसान अपने ढोर अमरकंटक के पठार पर चराने के लिए ले आते हैं।
पठार प्रकृत्ति के सौंदर्य का कोष है। उन दिनों जंगल में फूलों से लदे जूही के पेड़ मैंने विंध्यखंड के इसी स्थान में देखे। घूमते-घूमते एक स्थल पर पहुँचे, जिसको 'सूमपानी' कहते थे। सूमपानी शायद इसलिए कि पानी पहाड़ में से थोड़ा-थोड़ा करके रिसता था। इस पानी के आगे पहाड़ की एक घूम थी और मार्ग सँकरा। नीचे बड़ा भारी खड्ड। हम लोग घूम के इस सिरे पर थे, दूसरे सिरे पर कोमल कंठ निःसृत एक सामूहिक गान सुनाई पड़ा। ऐसे घने बीहड़ जंगल में यह सुरीला गान कहाँ से आया? थोड़ा आगे बढ़े तो जंगल की कुछ स्त्रियाँ और कन्याएँ रंग-बिरंगे फूलों से अपने केश सजाए, डलियाँ बगल में दाबे, फटे कपडे पहने आ रही थीं। हम लोगों को देखकर वे संकोच में मुसकाईं और गाना बंद कर दिया। हम लोग आगे बढ़ गए। मेरे मन में एक टीस उठी- हमारे देश की सुंदरता और संस्कृति ऐसी दरिद्रता में सनी हुई है।
जब पठार पर पहुँचकर नर्मदा के प्रपात को देखने गए, ऊपर की ओर बगल में एक छोटा सा बंगला देखा। उसमें शायद कोई संन्यासी या प्रवासी रहते थे। संन्यासी का अनुमान इसलिए करता हूँ कि उसमें से वनकन्या या देवकन्या के समान सौंदर्यवाली एक युवती निकली, जो गेरुए वस्त्र धारण किए हुए थी और चौड़े मस्तक पर भस्म का त्रिपुंड लगाए हुए थी। यदि जीवन रोमांस है - मुझे तो बहुलता के साथ मिला है तो उस कुटी में अवश्य था।
प्रपात के नीचे हम लोग नहाने को उतरे। स्नान से निवृत्त हुए थे कि समाचार देनेवाले ने सूचना दी 'नायरा ने गायरा किया है।' जेबों में गुड़ और भुने हुए चने डाले और रास्ते में खाते-पीते, पहाड़ के उतार-चढ़ाव को नापते हुए सूर्यास्त के पहले पाँच मील की दूरी तय करके गायरे के पास पहुँच गए। एक खड्ड के ऊपर बड़ा पेड़ था। उसपर कलमुँहे बंदर बहुत चीं-चिख कर रहे थे। जरूर शेर वहीं कहीं छिपा होगा, हम लोगों ने निष्कर्ष निकाला। पास ही एक मारे गए भैंसे का गायरा पड़ा था।
शेर जानवर की गरदन ऊपर से पकड़ता है और तेंदुआ नीचे से। भैंसे की गरदन पर ऊपर से दाढ़ों की फाँस पड़ी थी। निश्चय ही उसको शेर ने मारा था।
परंतु मचान बनाने में इतना हो हल्ला हुआ की शेर नहीं आया। रात भर आँखें गड़ाए रहे, लेकिन सिवाय एक रीछ के और मचान के पास कोई जानवर नहीं निकला।
शेर के लिए मैंने होशंगाबाद के भी कुछ जंगलों को छाना है। जंगलों की विशालता और महानता तो देखने को मिली, परंतु शेर नहीं मिला। एक स्थान पर गायरे की खबर पाकर गए। शेर ने गाय मार डाली थी। एक ऊँची मचान बनाई। चारों ओर से उसको ढाँका। सूर्यास्त के पहले ही मचान पर आसन जमा लिया। परंतु ठीक समय न जाने कहीं से असंख्य चींटे आ गए। आफत हो गई। बड़ी कठिनाई के साथ उनसे पार पा रहे थे कि पगडंडी पर शेरनी आती हुई दिखलाई दी। मंडला जिले में जो शेर देखा था उससे छोटी थी; परंतु उससे कहीं अधिक लचीली और फुरतीली। मैं चींटा युद्ध में व्यस्त था। मचान थोड़ी-थोड़ी हिल रही थी। शेरनी ने देख लिया, वह तुरंत चल दी। एक बार अपने जिले की हद से जरा हटकर हम लोग शिकार खेलने के लिए गए। संध्या के समय ठीहे के लिए जा रहे थे कि बगल की छोटी सी झाड़ी में शेर दिखलाई पड़ा। गोल बाँधकर हम लोग उसके पीछे पड़ गए। भाग्य की बात कि वह हम लोगों से अधिक बुद्धिमान था, वह भाग गया और हम लोग अपने सिर चिथवाने से बच गए।
ठीहे के लिए आगे बढ़े। बादल घिर आए और इतनी जोर का पानी बरसा कि शिकार-विकार सब भूल गए। कपड़े, बिस्तर, हथियार - सब बिलकुल जलमग्न हो गए। जब ठौर पर पहुँचे, घंटों कपड़ों के सुखाने में लग गए। दो बजे रात को कुछ भोजन मिला और तीन बजे थोड़ी सी नींद। सवेरे एक गप्पी ने शिकार के बड़े-बड़े सब्जबाग दिखलाए। कमबख्ती के मारे ऊँट चढ़े कुत्ते काटते हैं। दो दिन पहाड़ों में मारे-मारे फिरे, भूखे-प्यासे, कुछ भी न मिला। मिला क्या, दिखा तक नहीं। परंतु मसखरे साथी संग में थे, इसलिए भूख-प्यास, भटक और वह कठोर वर्षा के भी नहीं अखरी। जब लौटकर झाँसी आया तब मालूम हुआ श्री बद्रीनाथ भट्ट आए हुए हैं। भट्ट जी पुराने मित्र थे। उन दिनों अस्वस्थ थे। जलवायु परिवर्तन के लिए आए थे। झाँसी से दो मील दूर मैंने एक कृषि फॉर्म बनाया था और एक मकान खड़ा कर लिया था। एकांत स्थान और जलवायु अच्छा। भट्ट जी वहीं ठहर गए।
मुझसे बोले, 'लोग कहते हैं कि हिंदी के लेखक होकर आप शिकार खेलते हैं।'
मैंने कहा, 'लोगों का आरोप ठीक ही होगा, क्योंकि हिंदी के लेखक सिवाय धर्म और नीति के और किसी विषय पर लिखते ही कहाँ हैं!'
भट्ट जी विकट दुःख दर्द में भी हँसने हँसान में सचेष्ट रहते थे।
उन्होंने कहा, 'देखिए, हिंदी का लेखक उनको कहना चाहिए, जो सदा सिर झुकाकर चले, इधर-उधर कुछ न देखे। और बाजार में जब कोई सौदा लेने जाय तब चार पैसे की चीज के चार आने देकर घर आवे।'
मैंने भट्ट जी को इस बार की अपनी शिकार यात्रा का विवरण सुनाया। उसमें मनोरंजन के लिए कोई सामाग्री न थी, केवल पैर तोड़नेवाली यात्रा के क्रम थए।
उस दिन की कठोर वर्षा के दुःख को तो मैं जल्दी भूल गया, परंतु उससे लड़ने में जो प्रयत्न किया था, वह सदा याद रहा।

17
जंगली कुत्ते का मैंने शिकार तो नहीं किया है, परंतु उसको देखा है। जिन्होंने इसके कृत्यों को देखा है वे इस छोटे से जानवर के नाम पर दाँतों तले उँगली दबाते हैं। रंग इसका गहरा बादामी होता है, इसलिए शायद इसको 'सुना कुत्ता' कहते हैं।
अकेला-दुकेला सुना कुत्ता कुछ नहीं कर सकता; परंतु यह चालीस पचास से भी अधिक संख्या के झुंड में रहता है। और जानवर तो रात में शिकार खेलते हैं, यह दिन में ही बंटाढार करता है। जिस जंगल में सुना कुत्तों का झुंड पहुँच जाता है। उस जंगल के जानवरों का या तो सर्वनाश हो जाता है या वे ठौर छोड़कर दूर जंगलों में चले जाते हैं। यहाँ तक कि शेर भी उस जंगल को छोड़कर अन्यत्र चल खड़ा होता है। जब सेर के लिए खाने को जंगल में कुछ नहीं रहता तब उसको विवश होकर निर्वासन स्वीकार करना पड़ता है। केवल भोजन की अप्राप्यता ही शेर के कष्ट का कारण नहीं है, सुना कुत्तों का झुंड शेर को घेरकर मार भी डालता है। इसलिए शेर इस शैतानी झुंड से बहुत डरता है।
अन्य जानवरों की तरह सुना कुत्तों के झुंड का भी अगुआ होता है। इनमें जासूस, हरावल नायक, पहलेवाले इत्यादि सभी होते हैं। सुना कुत्ते मनुष्य से भी नहीं डरते; परंतु वे मनुष्य पर वार तब करते हैं जब उनको जानवर खाने को नहीं मिलते या जब उनके पास एक दूसरे को खा जाने का सुभीता नहीं रहता।
इनका जासूस स्काउट भोज्य पदार्थ की खबर देता है। सारा झुंड अंगड़ाई लेकर खड़ा हो जाता है। फुरेरू ली, धरती खोदकर नाखून तेज किए, जबड़े समेट कर दाँत पीसे और सबके सब चल दिए।
परंतु ये जानवर पर अंधाधुंध धावा नहीं बोलते। इसकी योजना किसी भी चतुर सेनापति की दक्षता को चुनौती देनेवाली होती है।
पहले इनका जासूस साँभर, चीतल, रोज, गुरायँ इत्यादि जानवरों के झुंड को दूर से दिखला देता है, फिर मुखिया जासूस को साथ लेकर चारों ओर चक्कर काटकर मार्के के स्थान देखता है। इसके बाद मुखिया अपने सारे दल को टुकड़ियों में बाँटकर मोरचाबंदी करता है। मोरचे चारों ओर से बाँध लिए जाते हैं। महत्व का कोई भी स्थान संभावना के लिए नहीं छोड़ा जाता।
इतना कर लेने के उपरांत मुखिया कूका देकर मानो आक्रमण करने का बिगुल बजाता है।
घिरा हुआ जानवर चौंककर इधर-उधर देखता है। दिखलाई कुछ नहीं पड़ता। कूके सुनाई पड़ते हैं। घेरा संकीर्ण होता चला जाता है। जैसे ही जानवरों ने निकल भागने के लिए उछल-कूद की कि सुना कुत्तों का एक दल आ चिपटा; बाकी सेना भी आई और कुछ क्षणों में ही जानवर साफ।
सुना कुत्ते शेर को भी घेरकर, सताकर और थकाकर मार डालते हैं। शेर को ये दिन-रात चैन नहीं लेने देते। नोचते-काटते रहते हैं। वह खिसिया-खिसियाकर इनपर झपटता है; पर ये हाथ नहीं आते। अंत में थका-माँदा और भूखा प्यासा शेर मारा जाता है और ये उसको चट कर जाते हैं।
इसके शिकार के लिए काफी सावधानी की जरूरत है। काँटों की घनी बिरवाई करके देखने और बंदूक चलान के लिए उसमें कई ओर छेद कर लिए जाते हैं। शिकारी महुआ, आम या बाँस के पत्ते की कोमल कोंपल क ओठों में दबाकर साँभर, चीतल के त्रस्त बच्चे की रुलाई या पुकार का अनुकरण करता है। उस शब्द पर कूके लगाते हुए और घेरा डालते सुना कुत्ते आ जाते हैं। पास आते तुरंत ही छर्रे के कारतूस चलाने की आवश्यकता है। जैसे ही एक-दो मरे या घायल हुए कि बाकी उनपर टूट पड़ते हैं और खाने में संलग्न हो जाते हैं। उसी समय झुंड पर लगातार छर्रे की वर्षा करनी अनिवार्य है। जब झुंड इस छिपी बला से अनपी संख्या को काफी घटा हुआ देखता है तब भागता है। ऐसी परिस्थिति में शिकारी सुरक्षित है।
सुना कुत्ते के नाश के लिए विविध प्रांतों में विविध प्रकार के पुरस्कार नियुक्त हैं। वैसे रक्षित जंगलों में बिना अनुमति के शिकार नहीं खेला जा सकता, परंतु सुना कुत्तों को मारने के लिए कोई शिकारी रक्षित वन में घुस सकता है और उनको मारकर पुरस्कार पा सकता है।
सुना कुत्ते की भूख मानो एक दहकता हुआ अग्निकुंड है। खाता चला जाएगा और फिर भी अतृप्त रहेगा। इसकी भूख की तुलना भेड़िए की भूख से की जा सकती है। परंतु न तो उसका झुंड इतना बड़ा होता है और न इतना भयानक।

18
भेड़िया आबादी के निकट के प्रत्येक जंगल में पाया जाता है। यह जोड़ी से तो रहता ही है, इसके झुंड भी देखे गए हैं। मैंने आठ-आठ, दस-दस तक का झुंड देखा है।
भेड़िया बहुत चालाक होता है। भेड़-बकरियों और बच्छे-बच्छियों का तो यह शत्रु होता ही है, मनुष्य के बच्चों को भी उठा ले जाता है। किसान स्त्रियाँ खेतों में काम करने के समय झोंपड़ों में बच्चों को छोड़ जाती हैं। भेड़िया मौका पाकर उनको उठा ले जाता है। जब वे साथ में बच्चों को डलियों में रखकर ले जाती हैं और मेड़ पर, पेड़ के नीचे बच्चों को छोड़ जाती हैं तब लौटने पर डलियों को खाली पाती हैं। मालूम हो जाता है कि भेड़िया उठा ले गया।
यह गड़रिया के छप्पर फाड़कर भेड़-बकरियों को दाब ले जाता है। इतना ही होता तो भी कोई बात थी, परंतु दस-पाँच को तो वहीं मारकर डाल जाता है। मैंने झाँसी के पास के ही एक गाँव में कुछ समय हा तब देखा था।
भेड़-बकरियों के चरते हुए बगर में से एकाध का मुँह में दाबकर उठा ले जाना साधरण बात है; परंतु कभी-कभी दो भेड़िए एक बकरी को कान पकड़कर भगा ले जाते हैं। एक कान एक भेड़िया मुँह में दाबता है और दूसरे को दूसरा। बकरी बेचारी गुमसुम घिसटती हुई चली जाती है।
भेड़िया खिलाड़ी जानवर है। कभी-कभी मनुष्य के बच्चे को पाल भी लेता है।
भेड़िये का पाला हुआ एक बच्चा मैंने स्वयं देखा है। वह भेड़िए के साथ ओरछा के जंगल में कोहनियों के बल फिर रहा था। एक ताँगेवाले को मिला। भेड़िये को ताँगेवाले ने पत्थरों की मार से भगा दिया और बच्चे को पकड़ लिया। ताँगेवाला इस बच्चे को ताँगे पर बिठलाकर घुमाता रहता था। बच्चा कच्चा गोश्त खाता था। न तो वह किसी प्रकार की मानव भाषा बोल सकता था और न समझ सकता था। इस बच्चे को पकड़े हुए ताँगेवाले को थोड़े ही दिन हुए थे कि अकस्मात् यह ताँगा मुझको बैठन के लिए मिल गया। वह बच्चा ताँगे में बैठा था। बिलकुल नंग-धडंग। लगभग सात-आठ वर्ष का होगा। जाड़े के दिन थे। मैंने ताँगेवाले को डाँटा, 'बच्चे को ऐसा उघाड़ा क्यो लिए फिरते हो? ठंड लग जाएगी, मर जाएगा।'
ताँगेवाले ने उत्तर दिया, 'यह कपड़ा पहनता ही नहीं। एक कुरता पहनाया तो इसने दाँतों और हाथों से फाड़-फूड़कर उसके टुकड़े-टुकड़े कर दिए।'
फिर उसने भेड़िये से बच्चे को छुटा लाने का ब्योरेवार वर्णन सुनाया।
रात थी। मैंने ताँगे को सड़क लैंप की रोशनी के निकट खड़ा करवाया और बच्चे को बारीकी के साथ देखा। बच्चे को यह अवलोकन पसंद नहीं आया। उसने अपने छोटे-छोटे सुंदर दाँत मुझको दिखलाए और आश्वासन दे का प्रयत्न किया कि यदि अवलोकन आगे बढ़ा तो काट खाऊँगा।
उन्हीं दिनों मेरे वर्ग के कुछ लोगों ने झाँसी में एक अनाथालय खोला था। सोचा, इसको अनाथालय में रख दूँ। ताँगेवाला तो उस बच्चे से पिंड छुड़ाना ही चाहता था, मैंन बच्चे को अनाथालय में रख दिया। मैं हफ्ते में कई बार उसको देखने के लिए जाता था। उस बच्चे को अँधेरी और मैली-कुचैली जगह बहुत प्रिय थी। उसको मिट्टी में पड़े रहना और पलोटें लगाना बहुत पसंद था। कपड़े पहनना और ओढ़ना तो उसको बहुत कठिनाई से सिखला पाया। उसको कोहनी और घुटने के बल चलना बहुत अच्छा लगता था। अकेले में किलकारियाँ मारता था। अनाथालय के अन्य बालकों के सामने चीख उठता था।
कई वर्षों तक वह भाषा नहीं सीख सका। अनाथालय में एक बैंड था। बैंड की ध्वनियाँ उसको अच्छी लगती थीं। वह उनको ध्यानपूर्वक सुनता था, प्रसन्न होता था और कभी-कभी किसी-किसी ध्वनि की नकल भी कर उठता था।
गंदा इतना रहता था कि कोई भी अन्य बालक उसके पास खड़ा होना तक पसंद नहीं करता था।
पाँच-छह साल बाद उसको कुछ बोलना आया। इतने दिनों में वह कपड़े भी पहनने लगा था।
पता नहीं वह किस दुःखी माता-पिता का बालक था।
एक भेड़िए की चालाकी मैंने अपनी आँखों से देखी है।
एक बार बैलगाड़ी से बाहर गया। लौटते समय संध्या हो गई। संध्या के पहले मैं गाड़ी से उतर पड़ा और गाड़ी के पीछे लगभग दो फलाँग पर रह गया। देखा कि चलते-चलते गाड़ी एक पेड़ के पास ठिठक गई। आस पास खुले हुए खेत थे। न तो कोई डाँग बीहड़ और न अन्य पेड़। सड़क के किनारे केवल एक पेड़ था। पास पहुँचा तो उस पेड़ के नीचे एक भेड़िया पड़ा है और गाड़ीवान तथा एक ग्रामीण उसके पास खड़े हैं। उन्होंने भेड़िए पर एक पत्थर फेंका था। वे समझते थे कि भेड़िया मर गया।
जब गाड़ी पेड़ के पास पहुँची थी, वह छिपने का यत्न कर रहा था। गाड़ीवान गाड़ी खड़ी करके उतरा। एक पत्थर उठाकर मारा और उसपर दौड़ पड़ा। भेड़िया गिर पड़ा और लंबायमान हो गया।
उन लोगों ने भेड़िये को उठाकर गाड़ी पर रख लिया और गाड़ी बढ़ाने को हुए। मैं टहलते हुए चलना चाहता था, इसलिए गाड़ी के पीछे था।
मुझको विश्वास नहीं था कि भेड़िया मर गया। जब उसको गाड़ी पर रखा, उसकी साँस नहीं चल रही थी। परंतु मैंने देखा, उसने अपनी आँखें खोलीं और मुझको देखते ही तुरंत झपकी सी ले ली।
मैंने गाड़ीवान से तुरंत उसको नीचे डाल देने के लिए कहा। नीचे डालते ही उसने फिर साँस साधी। मैं बंदूक तैयार लिए उसके सिर पर खड़ा था।
भेड़िये ने थोड़ी देर में साँस ली और आँखें खोलकर झटपट बंद कर लीं। वह भाग निकलने का अवसर ताक रहा था। वह पत्थर को चोट खाकर भाग न सका था। मरने का मिस करके पेड़ के नीचे पड़ गया था। गाड़ी पर पहुँचने और गाड़ी से नीचे डाले जान के समय भी वह उचाट लेकर भागने का बल प्रतीत नहीं कर रहा था, इसलिए मरने की दशा का बहाना करके चुप्पी साध गया। सोचता होगा कि अकेला रह जाऊँ तो फिर अपने झुंड में जा मिलूँगा।
जैसे ही उसने दुबारा आँखें खोलीं, मैंने उसको समाप्त कर दिया और गाड़ीवान से कहा, 'अब ले जाओ और इनाम के दस रुपये कमा लो।'
गाड़ीवान दूसरे दिन भेड़िये की खाल कचहरी में ले गया। दस रुपये इनाम के गाँठ में किए और एक टोपीदार बंदूक का लाइसेंस भी ले आया।

19
भेड़िये को हाँक-हूँककर गड़रिए की स्त्री प्यासी हो आई। भेड़-बकरियों को लेकर नदी किनारे पहुँची। पानी के पास गई। चुल्लुओं से हाथ मुँह धोया। थोड़ी दूर पर एक मगर पानी के ऊपर उतरा रहा था। वह मगर के स्वभाव को नहीं जानती थी। उनसे पानी पिया। गरमियों के दिन थे, नहाने की इच्छा हुई। पानी में उतर पड़ी। कुछ ही क्षण ठहरी थी कि मगर पानी के ऊपर आया कि सपाटा मारकर उसको पानी के नीचे ले गया। जब उसने समझ लिया कि मर गई, पत्थरों की खोख या झाऊ की झाड़ी में ले गया और उसको समूचा खा गया।
बड़ी नदियों के किनारे ये घटनाएँ प्रायः होती रहती हैं। कहार लोग अपने जाल में छोटे मगरों को तो फाँस लेते हैं, परंतु बड़े मगर और नाके इन जालों में नहीं आते।
मगर और नाके में अंतर है। मगर चौड़ा और ऊँचा होना है, नाका लंबा। बीस फीट से अधिक लंबाई के नाके मैंने देखे हैं।
मगर अधिक घातक होता है। गाय-बैलों तक को पानी में दबोच लेता है और डुबोकर मार डालता है। भेड़, बकरी और कुत्ते तो उसके लिए कुछ भी नहीं हैं।
एक बार मैं नदी किनारे प्रातः काल हाथ-मुँह धो रहा था। जल के पास पहुँचने के पहले एक मगर वहीं पड़ा हुआ था; परंतु मैंने देख नहीं पाया। हाथ-मुँह धोते समय मुझको पास ही तली में कुछ सरकता हुआ दिखलाई पड़ा। मैं तुरंत उचट कर पीछे हटा। मगर भी लौट गया। मैं पास ही एक पत्थर की आड़ में बैठ गया।
सवेरे के समय मगर जल के पास रेत में लेटने और सोने के लिए आता है। जाड़ों में तो वह देर तक धूप लेता रहता है।
घंटे-डेढ़ घंटे की प्रतीक्षा के उपरांत मगर रेत पर आया और चने के साथ लेट गया। मुझको उसकी खुली आँखें दिखलाई पड़ रही थीं। जब उसने आँखें मूँद लीं, यह नहीं अनुमान होता था कि उसके आँखें हैं भी या नहीं।
धीरे से राइफल सँभाली, गरदन का निशाना लिया और यहाँ लिबलिबी दबी, वहाँ मगर केवल जरा सा हिला और बहुत शीघ्र समाप्त हो गया।
मर जाने पर भी उसकी देह में इतनी गरमी रहती है कि थोड़ी देर तक स्पंदन करता रहता है।
जिस स्थान पर गड़रिए की स्त्री को मगर खा गया था, मुझको उस स्थान की चिंता हुई। कई बार घंटों ताक लगाकर बैठा, परंतु मगर की श्रवण शक्ति इतनी प्रबल होती है कि जरा सी आहट पर वह पानी में खिसक जाता था। दिन-दिन भर का श्रम व्यर्थ जाता और मुझको लौटना पड़ता।
एक बार एक मित्र ने मगर के स्वभाव को पास से जाँचने की इच्छा प्रकट की और मेरे साथ बैठने का हठ किया। हम लोग पानी के पास आड़ में जा बैठे। दो घंटे के बाद मगर आकर रेत पर बैठा। मेरे मित्र ने आतुरता के साथ कहा -
'वह आ गया मगर'
इधर मित्र का वाक्य समाप्त नहीं हो पाया था, उधर मगर पानी में गायब हो गया। वह बहुत धीमे बोले थे, परंतु मगर का कान बहुत तेज होता है।
परंतु एक दिन मगर झंझट में पड़ ही गया। मैं पथरीले किनारे पर दबे-दबे, पोले पैरों जा रहा था। एक पत्थर की ढाल पर पत्थर के रंग का सा ही कुछ दिखलाई पड़ा। मैंने जूते उतारकर एक जगह रख दिए। फिर बहुत धीरे-धीरे उस पत्थर के रंग जैसे की ओर बढ़ा। मेरा अनुमान सही निकला। वह एक भयानक मगर था।
जब मैं पंद्रह फीट के अंतर पर पहुँच गया तब उसको और अच्छी तरह देखा। बहुत ही कुरूप और भदरंग था। मैंने सिर का निशाना ताककर गोली छोड़ी। मगर पानी के बिलकुल पास था। वह जरा सा हिलकर तुरंत वहीं खत्म हो गया।
दूसरे महीने मैं अपने उन्हीं मित्रों के साथ इसी किनारे आया। रात को हम लोग अपने-अपने गड्ढे में जा बैठे। तेंदुए की खबर लगी थी। मैंने उन मित्र को सावधानी के साथ बैठने के लिए कह दिया था और तेंदुए की भयानकता के संबंध में कुछ बातें बतला दी थीं।
मेरे गड्ढे के सामने से तेंदुआ तो नहीं आया, एक भारी-भरकम विलक्षण जानवर निकला। मंद चाँदनी रात थी; परंतु वह गड्ढे के बिलकुल पास से निकला था, इसलिए पहचानने में की बाधा नहीं हुई। वह बड़ा मगर था और नदी के एक दह से दूसरे दह को कंकडों, पत्थरों और रेत में होकर जा रहा था। मेरे हाथ में उस समय 12 बोर की दुनाली बंदूक थी। नाल में टुकड़ेदार गोली (Split Bullet) वाला कारतूस था। चलाया, परंतु मगर तेजी के साथ आँखों से ओझल होकर पानी में धँस गया। सवेरे मैंने उस स्थल का निरीक्षण किया जहाँ मगर पर गोली चलाई थी, तब रेत के ऊपर गोली के टुकड़े पड़े मिले।
वास्तव में, मगर पर इस प्रकार की गोली का कोई प्रभाव नहीं होता। सिर या गरदन पर गोली पड़े तो और बात है, वैसे पीठ पर तो साधारण गोलियाँ खुजली का ही काम करती होंगी।
मैं अपने उन मित्र के गड्ढे पर गया। वे गड्ढे के पीछेवाले पेड़ पर चढ़े थे। वैसे उनमें बहुत वीरता थी; परंतु शिकार का अनुभव न होने के कारण उन्होंने पेड़ को ही आश्रय बनाना ठीक समझा था।
जब मैं पेड़ के नीचे पहुँचा, उन्होंने अपनी दुनाली बंदूक नाल की तरफ से मुझको दी। दोनों घोड़े चढ़े हुए थे और कारतूस तो नाल में थे ही। मैंने अपने प्राणों की कुशल मनाते हुए नाल को सिर से ऊँचा करके पकड़ा, साधकर घोड़े गिराए और उनसे कहा, 'इस प्रकार घोड़े चढ़ी हुई बंदूक को नाल की तरफ से किसी को नहीं देना चाहिए।'
वे हँसकर बोले, 'क्या परवाह!'
दूसरे दिन राइफल से एक मगर मारकर मैंने उसपर दुनाली की गोली के प्रभाव की परीक्षा करनी चाही। पक्की गोली उसकी पीठ पर चलाई। गोली उचटकर चली गई, केवल एक खरोंच छोड़ गई। उस रात मगर पर टुकड़ेदार गोली ने क्यों कोई काम नहीं कर पाया था, यह बात अब समझ में आ गई।
मगर का सिर, गरदन और पेट मार के स्थल हैं। उसकी पीठ के खपटे इतने प्रबल होते हैं कि साधारण हथियार काम नहीं कर सकते। राइफल की नुकीली गोली निस्संदेह उसपर यथेष्ठ काम करती है।
बेतवा का पाट कहीं-कहीं चार फर्लांग चौड़ा है। इस नदी में कई स्थानों पर टापू हैं। एक बार मैं दो मित्रों सहित नदी के उस पार भ्रमण कर रहा था। नदी में एक टापू उस ढी से दो फर्लांग पर था। टापू के नीचे थोड़ी सी रेत थी, बाकी पाट में पानी भरा हुआ था। हम लोग उस पार की ढी पर खड़े-खड़े ऊँचे स्वर में बातचीत कर रहे थे। टापू के नीचे एक बड़ा लंबा-चौड़ा मगर रेत पर पड़ा हुआ था। उसको हम लोगों की ओर से संकट की कोई शंका नहीं हो सकती थी, क्योंकि हम लोग बहुत दूर थे।
मेरे मित्रों ने प्रस्ताव किया - 'मगर पर राइफल चलाओ, देखें, गोली लगती है या नहीं।' मैंने टाला-टूली की। मुफ्त में एक कारतूस क्यों खोता। जानता था कि निशाना न लगेगा। वे लोग न माने। मैंने एक पत्थर पर राइफल रखकर निशाना साधा और 'धाँय' कर दी।
अकस्मात्, गोली मगर की गरदन पर पड़ी और वह हिलकर रह गया। मगर की गरदन का लक्ष्य कुछ ही इंच व्यास का होता है; परंतु उस दिन निशाने की जगह पर बैठना एक संयोग मात्र था; क्योंकि राइफल से मैंने बहुत निकट के लक्ष्य चुकाए हैं।
एक मगर जब दूसरे से लड़ता है तब नदी में तुमुल नाद होता है। मगरों की उछालों के मारे पानी फट-फटकर उत्ताल तरंगों में परिवर्तित हो जाता है और तरंगों पर झाग आ जाते हैं। मगर कभी रेल की सी सीटी बजाकर और कभी तेंदुए जैसी हुंकार भरकर एक दूसरे से टकराते, लिपटते और गुँथते हैं। डूबने का उनको कुछ डर ही नहीं, क्योंकि वे घंटों पानी के भीतर रह सकते हैं। जब एक थक जाता है तब उसका प्रबलतर प्रतिद्वंद्वी नीचे ले जाता है, फिर पकड़कर पानी के बाहर लाता है। अपने नाखूनी पंजों और विकट दाँतों से उसका पेट फाड़ डालता है।
परंतु यही मगर जलमानुस से बहुत घबराता है। जलमानुस पानी का सुना कुत्ता है। नदी के जिस बाग में पहुँच जाता है उसकी मछली, कछुए, मगर सब समाप्त कर देता है या भगा देता है।
जलमानुस होता छोटा सा ही जानवर है। पूँछ समते लगभग चार फीट लंबा और ऊँचा छोटे कुत्ते के बराबर। बहुत चिकना, बड़ा गाँठ-गँठीला और नाखूनी पंजोंवाला। वह बड़ी तेजी के साथ पानी में डुबकी लगाता है और उबरता है। झुंड में रहता है।
जब मगर से यह लड़ता है, मगर फुफकारी मारकर इसके ऊपर आता है; परंतु यह उचाट लेकर उसके सिर पर सवार हो जाता है और गरदन में अपना नाखूनी शिकंजा कसता है। मगर पानी के भीतर जाता है, परंतु जलमानुस को पानी में डूबने का तो कुछ डर ही नहीं है, मजे में चला जाता है और नीचे भी मगर के गले पर अपे पैने नाखूनों को गपाता है। मगर ऊपर आता है; परंतु वहाँ भी निस्तार नहीं, क्योंकि दूसरे जलमानुस उसके पेट के नीचे पहुँच जाते हैं और नाखून ठोंकने की उसी क्रिया को पेट पर चालू कर देते हैं। मगर रेत पर भागकर भी त्राण नहीं पाता; क्योंकि जलमानुस बंदरों की तरह भूमि पर चलते-फिरते उछलते-कूदते हैं। जलमानुस पेड़ पर भी चढ़ जाते हैं।
एक बार जब अपनी आँखों एक मगर को गाय पर सवार होते देखा, तब जलमानुस की बहुत याद आई। यदि वह इस पानी में होता तो मगर साहस न कर पाता।
दिन की बात थी। मैं 12 बोर की दुनाली लिए पानी से काफी दूर बैठा था। एक गाय किनारे पानी पीने आई। उसने पानी में मुँह डाला ही था कि मगर ने अपनी भयंकर पूँछ की पछाड़ गाय की देह पर दी। गाय रेत में जा गिरी और मगर उससे जा लिपटा। अभी तक सुना था कि मगर पानी में दबे-दबे आकर, पैर पकड़कर घसीट ले जाता है; परंतु यह व्यापार विलक्षण था। मैं तुरंत हल्ला करता हुआ दौड़ा, क्योंकि गोली नहीं चला सकता था। एक तो उसका प्रभाव मगर के ऊपर नहीं के बराबर होता, दूसरे गाय पर गोली पड़ जाने का भय था। मगर गाय को छोड़कर भाग गया। परंतु मगर की पूँछ के वार के कारण गाय इतनी घायल हो गई थी कि मुश्किल से नदी की ढी पर चढ़ पाई।
चिरगाँव से चार मील 'भरतपुरा' नाम का गाँव झाँसी जिले में है। बेतवा इस गाँव से लगभग एक मील की दूरी पर बहती है। उस पार के पहाड़ और जंगल बडे सुहावने दिखते हैं। कुंडार का किला इस गाँव से आठ-नौ मील दूर है। भरतपुरा के तैराक बरसात में आई हुई नदी को तो पार कर ही जाते हैं। वे आई हुई नदी में तैरते हुए कुल्हाड़ी से मगर का सामना भी करते हैं।
भरतपुरवालों की गाय-भैंसे जब उस पार जंगल में रह जाती हैं तब वे उनको लेने के लिए जाते हैं। उधर से ढोरों को लाते समय कभी कभी मगर से मुठभेड़ हो जाती है। मगर ढोर पर आ जाता है और ये एक हाथ से ढोर की पूँछ पकड़े हुए, दूसरे में कुल्हाड़ी लिए ललकारते हैं। और अपने ढोरों को बचा ले आते हैं।
मगर फागुन-चैत में अंडे देता है। अंडे इसके बड़े-बड़े होते हैं। यह उनको रेत में गहरे गाड़ता है। साधारण तौर पर यह मछलियाँ खाता है। मुँह खोल लिया, पानी फुफकारता रहा और मछलियों की निगलता रहा।

20
जंगल में शेर और तेंदुए से भी अधिक डरावने कुछ जंतु हैं - साँप, बिच्छू और पागल सियार।
अजगर का तो कुछ डर नहीं है, क्योंकि वह काटने के लिए आक्रमण नहीं करता है, भक्षण के लिए पास आता है; और जहाँ तक मैंने देखा और सुना है, मनुष्य से डरता है।
हिरन तक को निगल जानेवाले अजगर देखे गए हैं। चिरगाँव से पाँच मील दूर बेतवा किनारे एक अजगर ने हिरन को अपनी पूँछ की फटकार से पटका और लिपटकर उसके शरीर को चरमरा डाला; फिर उसको निगलना शुरू किया। पास ही किसानों के खेत थे। वे रखवाली कर रहे थे। रात का समय था। हिरन की पुकार सुनकर लाठी और कुल्हाड़ी लेकर दौड़े। उन्होंने समझा कि तेंदुए या भेड़िये ने हिरन को दबाया है। जब पास पहुँचे तब देखा, अजगर हिरन को दबाए हुए है और निगले जा रहा है।
उन्होंने लाठियों और कुल्हाड़ियों से अजगर को मार डाला और हिरन को छुटा लिया। परंतु हिरन भी मर चुका था। उन्होंने हिरन को छील-छीलकर पकाया, खाया। सबके सब बीमार पड़ गए। उनको हफ्तों दस्त लगे थे। परंतु कहा नहीं जा सकता कि अजगर के निगलने के कारण हिरन विषाक्त हो गया था या वे लोग किसी और कारण से बीमार पड़े थे।
काला, गढ़ैंत और उर्दिया साँप भयंकर विषधर हैं। उर्दिया साँप बूँदों और छपकोंदार होता है। देखने में सुंदर, परंतु काटने पर बहुत ही घातक विषवाला। यह काले से काफी बड़ा होता है। काले और गढ़ैंत को सभी जानते हैं। इन सबसे जंगल में भ्रमण करनेवालों, विशेषकर गड्ढों में बैठनेवालों को सावधान रहना चाहिए। अच्छा यह है कि मनुष्यों से डरते हैं; परंतु ये शिकार के गड्ढों में आ सकते हैं और आ जाते हैं। बैठने के पहले एक छोटे से डंडे से आस पास के स्थल को ठोंक-बजा लेने से रक्षा सुलभ हो जाती है।
बिच्छुओं से भी बचने के लिए यह प्रयोग अच्छा है। मैंने जंगलों में छह इंच लंबे तक बिच्छू देखे हैं। रंग काला, जिनको देखकर रोमांच हो आवे।
बरसात के आरंभ में हरे रंग के छोटे साँप दिखलाई पड़ते हैं। सुनते हैं कि ये भी बहुत विषैले होते हैं।
चलने-फिरने के लिए, और शिकार में वैसे भी, टाँगों मे टकोरे चढ़ा लेना बहुत अच्छा है।
साँपों को देखकर छोड़ देना दूसरे मनुष्यों या पालतू जानवरों के साथ घात करने के बराबर है।
पागल सियार भी जंगल की एक काफी बड़ी व्याधि है। पागल सियार के बराबर निर्भीक और ढीठ और कोई जंतु नहीं। इसको तो गाँववाले यथाशक्य, तुरंत ही नष्ट कर डालते हैं; क्योंकि वे उसके संहारकारी परिणाम को जानते हैं। पागल सियार जिस मनुष्य, ढोर तथा कुत्ते को काट खाता है, उसका बचना कठिन हो जाता है। पागल सियार का काटा हुआ मनुष्य यदि समय पर अस्पताली इलाज पा गया तो बच जाता है; परंतु ढोरों की बड़ी मुश्किल पड़ती है, और कुत्ते तो पागल सियार से पाए हुए विष को बाँटते से फिरत हैं।
हमारे यहाँ लोमड़ी का शिकार कोई नहीं करता और न वह खेतो को कोई बड़ा नुकसान ही पहुँचाती है। इसकी बोली रात के सन्नाटे को जब विचलित करती है तब ऐसा लगता है कि वह किसी बड़े जानवर के आने की सूचना दे रही है।

21
जंगलों में जितने भीतर और नगरों से जितनी दूर निकल जाएँ उतना ही रमणीक अनुभव प्राप्त होता है। पुराने नृत्य और गान तो जंगलों के बहुत भीतर ही सुरक्षित मिलते हैं।
अमरकंटक की यात्रा में कोलों और गोंडों का करमा नृत्य देखा। उसके कई प्रकार होते हैं। वे सब बारी-बारी से देखने को मिले।
करमा में स्त्री-पुरुष सब शामिल होते हैं। पुरुषों की एक टोली और स्त्रियों की एक टोली। पुरुष टोली एक कतार में और सामने स्त्रियों की टोली भी पाँत में। गायन और नृत्य ढोलकी के वाद्य पर होता है।
गायन सीधा और सरस होता है। गायन का साहित्य किसी प्रेमकथा या जीवन की किसी अवस्था पर मचलता है। मचल-मचलकर ही वे सब गाते हैं और बड़े मोद के साथ नाचते हैं। स्त्रियाँ घूँघट डाले रहती हैं। हम लोगों के समक्ष वे घूँघट ही डाले थीं। जब वे लोग 'बाहरवालों' के सामने न गाते-नाचते होंगे तब शायद घूँघट की आड़ हटा दी जाती हो।
करमा नृत्य में कला और विनोद दोनों हैं। मैंने करमा का अनुकरण शांति निकेतन की एक मंडली में देखा है। करमा स्वास्थ्य और आनंद देनेवाला नृत्य है।
बुंदेलखंड के देहातों में, विशेषकर हमीरपुर जिले के गाँवों में, विवाह के समय स्त्रियों का नृत्य देख है। इस नृत्य में एकरसता होती है। बहुत थकानेवाला और शायद कम विनोद देनेवाला होता है।
देहातों और जंगलों में जो विवाह होते हैं वे वास्तविक उत्सवों का रूप धारण करते हैं।
गोंडों और कोलों में तो विवाह एक बहुत बड़े त्योहार का रूप धारण करता है। इस त्योहार के मनाने में उनको पंडा-पुजारी की बिलकुल जरूरत नहीं पड़ती। गोंडों का सहवर्गी बेगा आता है और भाँवर पड़वा देता है। बेगा अपने को किसी भी ब्राह्मण से कम पवित्र नहीं समझता। और भोजन में चूहे-कौए को भी नहीं छोड़ता।
जब हम लोग 'नानबीरा' से लौटे, मार्ग में भूख लगी। साथ में दाल-चावल था, परंतु पकाने के लिए कोई बरतन न था। साथ में एक बेगा था, उससे मिट्टी का बरतन लाने को कहा। वह पास के एक गाँव से तीन-चार मटकियाँ ले आया। एक में हम लोगों ने पानी भरकर रख लिया और दूसरे में खिचड़ी चढ़ा दी।
एक कहावत है - दो मुल्लों में मुरगी हराम। इधर हम लोग थे पाँच-सात। चूल्हा जल रहा था, तो भी उसमें कोई लकड़ी निकाल-निकालकर फिर खोंस रहा है, कोई जलती हुई आग को बुझाकर फिर उसका रहा है, की हंडी में लकड़ी बार-बार डाल रहा है। मतलब यह कि न चूल्हे को चैन और न हंडी को। फल यह हुआ कि एक घंटे की इस कवायद-परेड के बाद हंडी का पानी जल गया और खिचड़ी में से जलाँध आने लगी। हमारे दलनायक ने व्यवस्था दी - 'उतारो, हंडी को उतारो, खिचड़ी पक गई है।'
हंडी को उतार लिया और चूल्हे को बुझा दिया; क्योंकि हवा चल रही थी, गरमियों के दिन थे और घने जंगल पास लगे थे। डर लगता था कि कहीं जंगल में आग न लग जाए।
खिचड़ी के ठंडे होने के पहले ही आतुरता के साथ महुए इत्यादि के पत्तों की पत्तलें बनाईं। अपनी-अपनी समझ में सुंदर परंतु गोल के सिवाय रेखागणित के किसी भी कोण से होड़ लगानेवाली। पर स्वादिष्ट खिचड़ी के लिए अच्छी आकृतिवाली पत्तलों की अटक ही क्या!
जब खिचड़ी परोसी और मुँह में डाली तब बिलकुल कच्ची। बेगा हम लोगों की झेंप और निराशा पर हँस रहा था। हंडी में काफी खिचड़ी रखी थी। बेगा भूखा था। हम लोगों ने बेगा से कहा कि पानी डालकर, इसको फिर से पकाककर खा लो। उसने बिलकुल नाहीं कर दी। वह हम लोगों का छुआ हुआ पानी तक नहीं पी सकता था इसलिए वह मटके लाया था। उसने एक मटका अलग से भरा। अलग ही अपनी खिचड़ी पकाई औऔर मजे में खा गया।
नगरों में रहनेवाले लोगों का खयाल है कि गाँवों में रहनेवाले लोग अपने बाहर के संसार से अंजान रहते हैं। इससे बढ़कर और कोई भूल नहीं हो सकती।
गाँववालों को अभी तक इतना सताया गया है, उनकी इतनी अहवेलना को गई है कि सिधाई और अज्ञान को उन्होंने अपना आवरण बना लिया है। वे उस आवरण को डाले हुए शत्रु और मित्र, दोनों के समाने एक समान भावना से आते हैं। जब वे समझ लेते हैं कि मित्र के रूप में बाहर से आया मनुष्य उनका वास्तविक मित्र या हितचिंतक है तब वे उस आवरण को हटा देते हैं। उस समय उनका सच्चा स्वरूप दिखलाई पड़ता है। उसकी ठोस बुद्धि, उनका दृढ़ स्वभाव और उनकी तत्परता उस समय पहचानने में आती है।
मैं एक बार एक कंधे पर बंदूक और दूसरे पर अपने थोड़ से बिस्तर लिए जंगल के गड्ढे में बैठने के लिए जा रहा था। गड्ढा दो-ढाई मील की दूरी पर था। मेरे पीछे एक गड़रिया आ रहा था। उसका मार्ग गड्ढे के पास होकर पड़ता था। गड़रिया मुझको पहचानता था। आगे बढ़ा और उसने मेरे बिस्तर अपने कंधे पर टाँगने का अनुरोध किया। मैंने नाहीं की, परंतु उसने बिस्तर छीनकर अपने कंधे पर रख लिया। मैंने सोचा, मैं इसकी क्या सेवा करूँ? मैंने वार्तालाप आरंभ किया। मैंने पूछा, 'कहो भाई, गाँव में क्या हो रहा है?'
उसने उत्तर दिया, 'और तो सब ठीक है, पर जमींदार जान खाए जाते हैं।'
'क्यों? कैसे?'
'जंगल में भेड़-बकरी नहीं चरने देते। कहते हैं, लगान दो। हम लोगों ने लगान पहले कभी नहीं दिया। हर साल दो कंबल देते चले आए हैं, सो अब भी देने को तैयार हैं; परंतु वे लोग कंबलों के अलावा लगान भी माँगते हैं। हम लोगों ने पहले बेगार कभी नहीं की। अब वे पुलिस और तहसील की बेगार भी कराना चाहते हैं।'
मैंने कहा, 'लड़ाई का जमाना है, इसलिए पुलिस, तहसील जमींदार सभी की बन पडी है। सबके सब अंधे हो गए हैं और आगा-पीछा न देखकर लालच में अंधाधुंध पड़ गए हैं। तो भी मैं कल आकर तुम्हारे जमींदारों को समझाऊँगा। वे लोग मुझको जानते हैं। मेरे समझाने से मान जाएँगे।'
गड़रिए को आश्वासन मिला। अब वह खुला। उसने अपने अभ्यस्त आवरण को हटाया। बोला, 'लड़ाई का क्या हाल चाल है?'
मैंने सोचा, इसको क्या बतलाऊँ। जो लोग भूगोल से थोड़ा सा परिचय रखते हैं, वे ही लड़ाई में भाग लेनेवाले देशों का नाम जानते हैं और वे ही लड़ाई के संबंध की कुछ बातें समझ सकते हैं। मैंने गोल-मटोल उत्तर देने की चेष्टा की।
लड़ाई के प्रारंभिक काल की बात थी, जर्मनी और इंग्लैंड की पैंतरेबाजी चल रही थी; परंतु अभी मुठभेड़ नहीं हुई थी।
मैंने कहा, 'अभी जर्मनी से अँगरेजों की झपटा-झपटी नहीं हुई है। दूसरे देशों में युद्ध हो रहा है। अपने देश से बहुत दूर-दो हजार कोस पर।'
वह मुसकराकर बोला, 'जर्मनी ने पोलैंड को तो जीत लिया है, अब फ्रांस को रौंदने वाला है।'
मैं इस वाक्य को सुनकर दंग रह गया। जंगलों और पहाड़ों में भेड़-बकरी चरानेवाला गड़रिया पोलैंड और फ्रांस के नाम जानता है, और यह भी जानता है कि जर्मनी ने पोलैंड को जीत लिया है और फ्रांस को रौंदना चाहता है। मैंने कुतूहल के साथ पूछा, 'रूस देश का नाम सुना है?'
उसने उत्तर दिया, 'सुना है वहाँ किसानों और मजदूरों की पंचायत का राज है।'
मैंने कहा, 'अपने देश में भी किसानों और मजदूरों का राज होगा। वह दिन जल्दी आ रहा है।'
गड़रिया बिना किसी बनावट के बोला, 'पर अपने यहाँ किसान-मजदूर जमींदारों और साहूकारों का खून बहाकर पंचायत नहीं बनाएँगे।'
'क्यों?'
'क्योंकि हम लोग राक्षस नहीं हैं।'
मुझको तुरंत अपने दरिद्र कहलानेवाले, परंतु महा गौरवमय, देश के उस तपस्वी की याद आ गई, जिसको इग्लैंड के एक मानवद्रोही घमंडी ने 'नंगा फकीर' कहा था, परंतु जिसको उसके देशवाले 'महात्मा' और 'बापू' कहते हैं।
बापू की निर्भीक अहिंसा की नींव देश की वह संस्कृति है, जो इस अनपढ़ गड़रिए के भीतर से उन शब्दों में होकर अनायास निकल पड़ी थी।
मैंने पूछा, 'तुम्हारे गाँव में भी झंडा उठाया गया?'
उसने उत्तर दिया, 'हाँ-हाँ, तिरंगा झंडा। कई बार उठाया गया और हम लोगों ने कई बार गाया 'झंडा ऊँचा रहे हमारा'।'
मैं उस दिन गड्ढे में नहीं बैठा। सीधा उसके गाँव में गया। जमींदारों को समझाया। उन्होंने 'हाँ-हाँ' तो कर दी और कुछ महीनों गड़रियों को तंग भी नहीं किया; परंतु वह प्रथा, वह प्रणाली ऐसी है कि उनकी हाँ-हाँ बहुत दिनों तक नहीं चली।

22
शिकार के साथ यदि हँसोड़ न हों और चुप भी रहना न जानते हों तो सारी यात्रा किरकिरी हो जाती है। मुझको सौभाग्यवश हँसोड़ या चुप्प साथी बहुधा मिले।
संगीताचार्य आदिल खाँ वह अपने को कभी-कभी 'परोफेसर' कहते हैं - काफी हँसोड़ भी हैं। शिकार में दो-एक बार मेरे साथ गए। जंगल में तो उन्होंने नहीं गाया, गाने की धुन में तो उनको तबले-तँबूरे की अटक ही नहीं रहती, परंतु शिकार से लौटने पर उन्होंने तानों की वर्षा कर दी।
जब शिकार के मोरचों पर नहीं होते तब बातें भी काफी करते हैं।
एक बार यात्रा करते हुए लौट रहे थे। गाड़ी के पीछे सामान रखा था, बीच में मेरे जूते रखे हुए थे। उस्ताद लखनऊ संबंधी अपने कुछ अनुभव सुना रहे थे।
कहते जाते थे 'एक बार मैं लखनऊ की एक रईसी दावत में फँस गया। खानेवालों के सामने सजा-सजाया बढ़िया खाना, पर थोड़ा-थोड़ा ही। इसपर भी इतना तकल्लुफ कि जो देखो, सो परोसनेवाले से कहे - अजी बस, अजी बस। यही पड़ा रह जावेगा, ज्यादा मत परोसो। मैंने सोचा, इनको तकतल्लुफ में भी मात देना पड़ेगा। मैंने ग्रास उठाया, सूँघा और रख दिया, सूँघा और रख दिया। मेरी कार्रवाई को देखकर लखनऊ के एक साहब ने कहा - 'उस्ताद, आप तो कुछ भी नहीं खा रहे हैं, यह क्या? मैंने जवाब दिया, 'साहब, मैं तो खुशबू से ही पेट भरनेवालों में हूँ।' जब दावत समाप्त हो गई, आँतें कुलबुला उठीं। मैंने बहाना लेकर बाजार का रास्ता पकड़ा और एक दूकान पर जाकर अपने बुंदेलखंडी पेट को डाटकर भरा।'
उस्ताद ने हँसते हुए एक दूसरी कहानी छेड़ी - 'लखनऊ से एक साहब शिकार के सिलसिले में झाँसी आए। विकट बीहड़ जंगल पहुँचे। मुझसे बोले, 'मियाँ, आपकी बंदूक गोली बरसाती है और हमारा मुँह ही गोले छोड़ देता है।' मैं जवाब देने के लिए परेशान हो रहा था कि एक जगह साँभर की लेंड़िया का ढेर दिखलाई दिया। मैंने लखनऊवाले मेहमान से कहा, 'जनाब, जरा उस ढेर को देखिए। हमारे यहाँ के जानवर लोहे की लेंड़ियाँ करते हैं।' मेहमान मारे पसीने के तर हो गए।'
उस्ताद की गप खत्म हुई थी कि गाड़ी के पीछे की तरफ आँख गई। सब सामान, बिस्तरे-विस्तरे गायब। दुपहरी का समय था, परंतु गपशप में सामान का खिसक जाना मालूम ही न पड़ा। सामान के साथ मेरे जूते भी चल दिए थे। सामान और बिस्तरे उस्ताद के ही थे, इसलिए वे सारी गपशप भूल गए।
बेचारे गाड़ी पर से उतरे। काफी लंबी दौड़धूप की। सामान मार्ग में पड़ा मिल गया। मेरे जूते खो गए।
परंतु कभी-कभी ऐसे साथी भी मिल जाते हैं कि त्राहि-त्राहि करनी पड़ती है।
तंदुए या शेर के लिए जो मचान बाँधी जाय, उसपर अकेले बैठना सबसे अच्छा। कोई साथ में बैठे तो पहली शर्त यह है कि बातचीत बिलकुल न करे और दूसरी यह कि खाँसता न हो।
यदि जरा सी भी आहट हो गई तो चाहे मचान पर कोई दिन-रात बैठा रहे, शेर तो आवेगा नहीं; तेंदुआ शायद दुबारा आ जाए, क्योंकि वह बहुत ढीठ होता है।

23
शेर के संबंध में शिकारियों के अनुभव विविध प्रकार के हैं। सब लोगों का कहना है कि मनुष्यभक्षी शेर के सिवाय सब शेर मनुष्य की आवाज से डरते हैं। जब शेर की हँकाई होती है और ऐसे जंगल की हँकाई प्रायः की जाती है, जिसमें उसने गायरा किया हो- क्योंकि गायरा करके वह आस पास ही कहीं छिप जाता है। तब लगानवालों को पूरी चुप्पी साधकर बैठना पड़ता है। शेर को लगानवालों के पास भेजने के लिए पेड़ पर कुछ लोग बैठ जाते हैं; यदि सेर भटककर उनकी ओर आता है तो वे कंकड़ बजा देते हैं और शेर मुड़कर लगानवालों की ओर चला जाता है।
कुछ लोगों का अनुभव है कि शेर आदमियों के बीच से ढोर को पकड़ ले ताजा है; परंतु ऐसे लोगों का यह भी कहना है कि आदमियों के हल्ला-गुल्ला करने पर शेर डरकर, छोड़कर भाग जाता है।
अनेक शिकार यह कहते हैं कि घायल होने पर ही शेर शेर बनता है; वैसे तो वह डरपोक जानवर है। सदा अपनी रक्षा की चिंता में रहता है।
एक अँगरेज शिकारी ने घायल शेर के रोमांचकारी पराक्रम का वर्णन किया।
अँगरेज और उसकी पत्नी दोनों शिकार खेलने गए। वे निकट मचानों पर पृथक-पृथक बैठे। हँकाई हुई। शेर पहले पुरुषवाले की मचान के पास आया। वह अपनी पत्नी को शिकार खिलाना चाहता था, इसलिए उसने बंदूक नहीं चलाई। शेर उसकी पत्नी की मचान के पास पहुँचा। उसने बंदूक चलाई। शेर घायल हो गया। घायल शेर ने उस स्त्री को देख लिया। शेर मचान पर पहुँचने के लिए पेड़ पर चढ़ा। स्त्री ने बंदूक की गोलियाँ खर्च कर डाली, परंतु शेर न मुड़ा।
उसका पति यह सब देखकर बहुत घबराया। शेर स्त्री के निकट पहुँचता चला जा रहा था। अँगरेज पत्नी को चोट पहुँचने के भय से बंदूक नहीं चला रहा था। वह अपने मचान से उतरा। शेर झपट मारकर स्त्री पर टूटना ही चाहता था कि उसने अपनी पत्नी को बरकाते हुए गोली चलाई। स्त्री डर के मारे मचान से नीचे जा गिरी और घायल शेर गोली खाकर जमीन पर लुढ़का। स्त्री बच गई। शेर मर गया। शेर संबंधी और अनेक मनोरंजक घटनाएँ हैं।
शेर का मेरा अनुभव यद्यपि अन्य शिकारियों की अपेक्षा अधिक विस्तृत नहीं है, तथापि समकक्ष अवश्य होगा।
अप्रैल सन् 1946 की बात है। मैं ओरछा राज्य (श्यामसी) वाले फॉर्म पर था। इस फॉर्म के निकट ही राज्य का रक्षित वन है। जानवर तो उसमें कम हैं, परंतु जंगल पर्वतमय होने के कारण सुंदर है।
मेरे पास शिकार खेलने का लाइसेंस था। एक दिन पहले तक काफी परिश्रम कर चुकने के कारण सोचा कि जंगल की सैर कर आऊँ। बैलगाड़ी पर गया।
मेरा फॉर्म प्रबंधक बिंदेश्वरी गाड़ी हाँक रहा था। गाड़ी में मेरे पास एक बुड्ढा और बैठा था। फॉर्म से गाड़ी लगभग साढ़े छह बजे सुबह चली। चार-पाँच फर्लांग चलने के उपरांत सूरज ऊपर चढ़ आया।
फॉर्म और रक्षित वन के बीच सिंगा नाला है। नाले की चढ़ाई साधारण है। चढ़ाई पार करते ही सघन वन मिलता है। उसी स्थान पर छोटा सा नाला ऊपर आकर उस नाले में दाईं ओर मिला है। नाले पर हिंस, मकोय, करधई, नेगड़ और पलाश के छुटपुट पेड़ हैं।
मैं आगे की ओर मुँह किए था, एक बुड्ढा बगल में। बैल मट्ठर थे और धीमे-धीमे चल रहे थे।
बुड्ढे ने मेरी बगल में धीरे से कुहनी से स्पर्श किया और कहा, 'नाले के ऊपर और पत्तों के बीच चीतल पड़ा है।'
मैंने तुरंत उस ओर देखा। गाड़ी खड़ी करवा दी। पत्तों के पीछे शेर खड़ा था। खरी छौहोंवाला दीर्घकाल पूरा शेर। बुड्ढे ने पहले कभी शेर न देखा था, इसलिए उसे चीतल का भ्रम हआ।
मैंने बिंदेश्वरी और बुड्ढे से कहा, 'नाहर है।' वे दोनों उत्सुकता के साथ उसे देखने लगे। बंदूक मेरी तैयार थी, परंतु लाइसेंस में शेर के शिकार की अनुमति न होने के कारण बंदूक चलाने का लालच तक मन में न आया। परंतु मुझको एक कल्पना सूझी।
लोग कहते हैं कि मनुष्य की आवाज पर सेर भाग जाता है, परंतु वह अडिग रहा, और मैंने जोर के साथ बातचीत की थी, तो भी वह नहीं हटा था। मैंने शेर की हुंकार-गर्जन का अभिनय अपने कंठ से किया। मैं कम से कम पच्चीस बार गरजा।
फिर भी शेर वहाँ से न हिला।
मैंने सोचा, इतना खेल काफी है। गाड़ी आगे बढ़वाई। मुश्किल से चालीस-पचास कदम बढ़ी होगी कि शेर दाईं ओर से चलता हुआ बिलकुल आड़ा आ खड़ा हुआ। हम लोगों के और उसके बीच कोई आड़ नहीं थी; न एक पत्ता और न एक सींक। इस बार गोली चलाने का लोभ मन में हुआ; परंतु लाइसेंस की बाधा के कारण रुक गया।
शेर पूर्व की दिशा की ओर था। उसके ऊपर से सूर्य की किरणें रिपट रही थीं। गाड़ी से वह पचास-साठ डग के अंतर पर होगा। मुझको फिर शरारत सूझी। और मैंने फिर उसके गर्जन की नकल की। अव की बार शेर ने अपना जबड़ा जरा नीचे को लटकाया और अगला पंजा लगभग एक इंच जमीन से उठाकर फिर रखा- मानो सोच रहा हो कि इस अभद्रता का क्या उत्तर दूँ। मुझको भी संदेह हुआ। दाल में काला समझकर मैंने गाड़ी हँकवाई।
मार्ग में एक मोड़ था, लगभग पचास गज का। इस मोड़ से शेर नहीं दिखलाई पड़ रहा था; परंतु जैसे ही मोड़ साफ हुआ, देखा कि शेर गाड़ी के पीछे-पीछे आ रहा है।
मैं समझ गया कि शेर चिढ़ गया है और उसकी नियत में फर्क है, शायद आक्रमण करेगा।
मैंने बिंदेश्वरी से कहा, 'गाड़ी तेज चलाओ।'
उसने बहुत प्रयत्न किया, यहाँ तक कि बैल को ठोकर मारते-मारते एक पैर का जूता खिसककर गिर गया; परंतु बैल मट्ठे थे, इसलिए न बढ़े। बैलों ने शेर को नहीं देखा था, और पश्चिम का पवन होने के कारण उन्होंने सेर की गंध भी नहीं पाई थी, नहीं तो गाड़ी को फेंक-फाँककर भाग जाते।
शेर के मार्ग में जूता आया। उसने एक छोटी सी छलाँग मारकर इस अपशकुन को पार किया।
बिंदेश्वरी चुप्पा बहादुर है। उसका धीरज उसकी गाँठ में था; परंतु बुड्ढे के चेहरे पर मैंने घबराहट के लक्षण देखे। वह पीछे बैठा था। डर लगता था, कहीं वहीं का वहीं न टपक जाए। मैंने अपने दोनों साथियों को चिल्लाकर ढाढ़स दिया।
मैंने शेर पर गोली न चलाने का निश्चय कर लिया था, क्योंकि मैं ओरछा नरेश के सौजन्य का अपमान नहीं करना चाहता था।
परंतु इधर अकेले मेरे ही नहीं, मेरे दो साथियों के प्राणों पर आ बनी थी, जिसमें बिंदेश्वरी तो मेरे कुटुंब का एक अंग सा ही था।
गाड़ी अपनी गति से चली जा रही थी। शेर मानो नाप-नापकर अपने और गाड़ी के बीच के अंतर को कम करता चला आ रहा था।
मैंने पूरे जोर के साथ चिल्लाना शुरू किया, 'हट जा, भाग जा, कमबख्त! अभागे हट जा, भाग जा।'
मैं इतना चिल्लाया कि अंत में मेरा गला बैठने लगा। सुनसान जंगल में मेरी चिल्लाहट गूँज-गूँज जा रही थी। चिल्लाहट के कारण मेरे कान सनसना रहे थे; परंतु हम लोग भयभीत नहीं हुए थे।
जब जब मैं चिल्लाहट को और अधिक कठोर और भीषण बनाता, तब-तब शेर जरा सा, बहुत जरा सा सहमता जान पड़ता; परंतु वह रुका नहीं। उत्तरोत्तर अपने और गाड़ी के अंतर को कम करता चला आ रहा था।
उसके पंजों से नाखून निकल-निकल पड़ रहे थे। मूँछें खड़ी थीं। बड़ी-बड़ी आँखें जल रही थीं।
दो फर्लांग चलने के बाद अंतर केवल पच्चीस-तीस कदम का रह गया था।
चिल्लाते-चिल्लाते मेरा गला लगभग बैठ गया था। शेर को केवल दो लंबी छलाँगें मारने की कसर थी कि हम तीनों की हड्डी पसली एक हो जाती। यदि भागनेवाले तेज बैल होते, तो भी पार नहीं पा सकते थे; क्योंकि शेर भी उसी अनुपात में अपना डग बढ़ाता।
अब केवल एक विकल्प कल्पना में आ रहा था - या तो शेर गाड़ी पर कूदकर हम लोगों को चबाता है या फिर उसपर राइफल चलाकर उसकी गति को कुंठित करना चाहिए।
परंतु इस विकल्प में एक बड़ी बाधा थी - पहाड़। ऊबड़-खाबड़ मार्ग पर गाड़ी चल रही थी। शेर उलटा-सीधा हम लोगों की ओर बिना रुके हुए चला आ रहा था। निशाना नहीं बाँधा जा सकता था। ऐसी परिस्थिति में वह शायद घायल ही होता और फिर घायल शेर वास्तव में शेर होता है। फिर वह किसी हालत में भी हम लोगों को न छोड़ता।
तब एक और उपाय सूझा। मैंने सोचा, शेर के आगे जरा अंतर पर गोली छोड़नी चाहिए। शायद बंदूक की आवाज और गोली से उडी धूल के कारण डरकर लौट जाय। शायद गोली से उचटी हुई धूल उसकी आँखों में पड़ जाय। तब तक हम लोग, मंथर गति से ही सही, जान बचा ले जाएँगे। और यदि यह उपाय विफल हुआ तो एक अंतिम संकल्प वही था - ताककर सेर के सिर पर गोली चलाना। फिर लगे कहीं भी।
मैंने तुरंत बढ़ते हुए शेर के सामने गोली चलाई, ऐसी कि उसके फुट या दो फुट आगे पड़े। गोली चलते ही अर्राट का शब्द हुआ। उसके सामने धूल भी उड़ी। शेर की हिम्मत डिग गई।
वह लौट पड़ा और जंगल में विलीन हो गया। हम लोग अपने प्राणों की कुशल मनाते हुए घर लौट आए।

24
लौटने पर किसी ने कहा तलवार पास रखनी चाहिए, किसी ने कहा छुरी।
तलवार और छुरी का उपयोग शिकार में हो सकता है; परंतु मैं तलवार से छुरी को ज्यादा पसंद करूँगा और छुरी से भी बढ़कर लाठी को, और लाठी से बढ़कर कुल्हाड़ी को। लाठी और छुरी का विवाद बहुत पुराना है। सटकर लड़ने में छुरी बहुत काम दे सकती है। परंतु अच्छी लाठी लाठी ही है। तो भी पास में एक अच्छी लंबी छुरी या अच्छी कुल्हाड़ी का रखना उपादेय।
हथियारों के विकल्प के विषय पर बहुत विषाद है। कोई कुछ कहता है और कोई कुछ। जिनके पास अटूट साधन और समय है और जिनको अपना जीवन शिकार के अंचल में भेंट करना है, वे भिन्न बोरों की दर्जनों बंदूकें रखते हैं; परंतु मेरी समझ में एक 12 बोर दुनाली और एक प्रबल राइफल अल्प साधन और स्वल्प अवकाशवाले के लिए काफी हैं। राइफल के बोरों में मुझको तो 30 बोर अच्छा जान पड़ता है। इसकी मुहारी गति (Muzzle velocity) और मुहारी शक्ति (muzzle energy) संतुलित होती है। यदि बड़े शिकार के लिए प्रबलतर बंदूक ही वांछित हो तो 500 या 450-400 बोरवाली राइफल बहुत अच्छी है। अमेरिका संयुक्त राज्य के प्रधान प्रेसीडेंट प्रथम रुजवेल्ट नामी शिकारी थे। उनको अफ्रीका के सिंहों के मारने का बहुत शौक था - उन्होंने मारे भी बहुत थे। उनकी सम्मति में 405 बोर विंचैस्टर राइफल सिंह की औषध थी (medicine gun for lions); परंतु बात अपने-अपने पसंद की है। और वास्तव में अच्छा हथियार वह है, जो अपने हाथ को लग जाए।
दूसरा प्रश्न कारतूसों का है। 12 बोर की बंदूक के लिए बिलकुल पास (लगभग पंद्रह फीट के अंतर पर) चलाने के लिए एल जी (हिरनमार छर्रा) बहुत अच्छा है; परंतु सुअर इत्यादि विकट जानवरों के लिए तो टूटी गोली (split bullet) वाला कारतूस ज्यादा अच्छा। राइफल के लिए नरम नोकवाला कारतूस (soft nosed bullet) ही काम का है। पक्की गोली (hard ball) प्रायः निराशा और दुर्घटना का प्रत्यक्ष कारण बनती है।
कुछ लोग पिस्तौल या रिवाल्वर के भरोसे शिकार खेलने की इच्छा करते हैं। ये हथियार नजदीक से आत्मरक्षा के बड़े अच्छे साधन हैं; परंतु शिकार के लिए तो बहुत कम उपयोगी हो सकते हैं।

25
यदि गाँववालों को शिकारी की सहायता नहीं करनी होती है तो वे कह देते हैं कि जंगल में जानवर हैं तो जरूर, पर उनका एक जमाने से पता नहीं है। सहायता वे उन लोगों की नहीं करते, जिनसे उनको कोई भय या आशंका होती है। जिन शिकारियों को वे अपने अनुकूल समझते हैं, उनके साथ बरताव बिलकुल उलटा होता है। उनसे कहेंगे, 'ढेरों जानवर हैं, मुल्कों गाड़ियों, खीटों!'
जब शिकारी इन 'असंख्य' जानवरों की तलाश में निकलता है, तब मिलता है उसको कुछ भी नहीं। कभी-कभी ऐसा हो जाता है।
असल में जानवर कुसमय या अनुपयुक्त स्थान पर नहीं मिलते, चाहे जैसे बड़े जंगल में कोई चला जाय।
मुझको प्रतिकूल वातावरण में जाने का बहुत कम अवसर मिला है। परंतु अनुकूल ग्रामों में भी काफी निराशाएँ पल्ले पड़ी हैं। दोष गाँववालों या जानवरों का नहीं है। कई मौकों पर तो सारा दोष शिकारी या शिकारी के सहयोगियों के ही मत्थे जाना चाहिए और गया।
यही शिकारियों की गपबाजी के विषय में भी दो शब्द कहना अनुपयुक्त न होगा। जब शिकारी की गोली चूक जाती है तो बहुधा उसको मालूम हो जाता है कि निशाना खाली गया; परंतु वह प्रायः कहता यही है - जानवर को लग गई, घायल भाग गया है। जब जानवर के घायल होने चिह्न चाक ढूँढ़ा जाता है तब जंगल में उसका कुछ पता नहीं लगता। निस्संदेह कभी-कभी घायल जानवर के शरीर से बिलकुल रक्त नहीं निकलता, परंतु सभी खाली निशानों के लिए ऐसा नहीं कहा जा सकता।
शायद शिकारी योजना बनाकर झूठ नहीं कहता। आत्मगौरव या गर्व उसके अचेतन मन में झूठ बोलने के लिए पहले से ही जगह बनाए रहता है। ऐसा निशाना खाली जाने पर, जो जानवर के बिलकुल नजदीक से चूका हो, तुरंत ही शिकारी के मन में एक धारणा उत्पन्न करता - 'निशाना लग गया होगा', 'निशाना लगने का शब्द तो हुआ था।' परंतु जब थोडी देर में उसको विश्वास हो जाता है, चूक हुई है तब भी वह सच्ची बात नहीं बतलाता।
अधिकांश शिकारियों को मैंने क्रोधी नहीं पाया। परंतु जब हँकाई में कोई जानवर न मिलता तब भरतपुरावेल मेरे मित्र बहुत खिसिया जाते थे। हँकैयों को डाँटते या किसी न किसी को फटकारते।
उन्होंने ने छुटपन में बहुत कुश्ती कसरत की थी - इतनी कि वे जिले के नामी पहलवानों में थे। परंतु बहुत दिनों से व्यायाम छोड़ देने के कारण स्थूल हो गए थे और अधिक दौड़धूप में उनको हाँफ आ जाती थी, इसलिए जब शिकार में उनको कुछ न मिलता तो मेहनत आँस जाती थी।
एक बार जब क्रोध खर्च करने के लिए उनको सामने कोई न मिला, तब मकान के सामने एक चारपाई पर लेट गए। आस पास कुत्ते थे ही, उन्होंने अपने क्रोध और गालियों के खजाने को कुत्तों पर लेटे लेटे ही बरसा डाला।
हमारी भाषा में गालियों की यों भी कोई कमी नहीं है; उन्होंने नई-नई भी अनेक बनाई, जो कुत्तों की कई पीढ़ियों को ही अपने चक्कर में घसीट नहीं लाईं। बल्कि उनके कल्पित या वास्तविक मालिकों के पुरखों और सगोत्रजों तक को अपनी कठोर कृपा से वंचित न रख सकीं।
मेरे ये मित्र निरामिषभोजी थे, परंतु शिकार के व्यसनी। ऐसे भी लोगों का संग हुआ है, जिन्होंने कभी शिकार नहीं खेला।
एक बार मेरे एक जैन मित्र मेरे साथ घूमने के लिए गए। उनका विचार शिकार खेलने का न था और न इस प्रयोजन से मैंने अपने साथ उनको लिया ही था। कुछ हिरन देखकर उन्होंने कहा, 'इनका मारना अनुचित है। ये किसी को हानि नहीं पहुँचाते।'
मुझको बहस नहीं करनी चाहिए थी; क्योंकि जो लोग प्रत्येक प्रकार की हिंसा से दूर रहना चाहते हैं, उनको शिकार वृत्ति में उपनीत करने का मेरा या किसी भी शिकारी का काम नहीं है। मुझको चुप देखकर वे स्वयं कहने लगे, 'परंतु यदि तंदुआ या शेर मिले तो अवश्य बंदूक चलाऊँ।'
मुझको भी कुछ कहना पड़ा, 'क्यों? तेंदुए या शेर ने आपका क्या ले लिया है?'
उत्तर मिला - 'ये हिंस्र पशु हैं। इनको मारने में मन को कोई बाधा प्रतीत नहीं होती।'
मुझको किसी पक्ष के समर्थन करने का आग्रह नहीं था, तो भी मेरे मुँह से निकल पड़ा - 'हाँ, ये हिरनों को खाते हैं और हिरन मनुष्यों की खेती को खाते हैं।'
एक दूसरे जैन मित्र ने तेंदुए का शिकार खेल ही डाला। मचान पर बैठने के पाव घंटे बाद तेंदुआ आया। उनको बंदूक चलाने का अभ्यास बहुत कम था। चलाई, परंतु खाली गई। तेंदुआ भाग गया।
कुछ लोगों को अपने शिकार के स्मारकों से घर भरने का बड़ा शौक होता है। यदि इनके लिए कुछ अपना भी खून बहाया गया तो उन स्मारकों में खेल की कुछ छलछलाहट मिलेगी; परंतु यदि वे शिकार के सहयोगियों के रक्त में सने हुए हैं, तो मन में ग्लानि उत्पन्न होती है।
झाँसी के पड़ोस में ही एक रियासत के राजा शिकार के बहुत व्यसनी हैं। शेर तो उन्होंने इतने मारे हैं कि अपने महल के एक बड़े कमरे में उसी की खालें फर्श और दीवारों पर हैं। मुझे आश्चर्य था कि छत को क्यों खाली से नहीं मढ़ा गया है!
इनका शिकार अधिकतर हँकाई का होता है। इनकी मचान के पास से शेर को हाँकने का प्रयत्न किया जाता है। फिर शेर का मारा जाना हाथ की सफाई और बंदूक की शक्ति पर निर्भर है। उनके एक हाँके में शेर निकला और गोली से घायल होकर जंगल में घुस गया। राजा के एक जागीरदार को घायल शेर की खोज के लिए जाना पड़ा। शेर काफी घायल हो गया था, परंतु उसमें बदला लेने के लिए अभी बल बाकी था।
घायल शेर जागीरदार पर टूट पड़ा। उसने अपनी झपट से उन
का कंधा फाड़ दिया और एक आँख को खरोंच डाला। वे नीचे पड़ गए और शेर ऊपर हो गया। वह उनको तुरंत खत्म कर देता, परंतु पास ही एक शिकारी और था। उसने बिलकुल पास आकर ऐसे अंदाज के साथ गोली चलाई कि नीचे पड़े हुए जागीरदार बच जाएँ और शेर मारा जाए। ऐसा ही हुआ।
कंधे और आँख के इलाज में महीनों लग गए; परंतु वे बच गए। जिस आँख को शेर ने खरोंचा था उस आँख से उनको दिखलाई तो पड़ा, परंतु उसका स्थान बदल गया। यह घटना एक मित्र की आँख की देखी है।
इन्हीं की एक आँख देखी घटना और है, परंतु उसका अंत भंयकर हुआ।
एक बड़े शिकारी हाँके के शिकार में बिना मचान के शिकार खेलने लगे। वे शेर की दाब में आ गए। चित गिर पड़े। शेर ने दोनों पंजे उनकी कमर के ऊपरी भाग पर रखे और उनके मुँह के पास हुंकार भरी और छोड़कर चला गया। इतनी ही दबोच के कारण उनका फेफड़ा फट गया और मुँह, आँखों तथा नाक से खून आ गया। थोड़ी देर बाद उनका देहांत हो गया।
मैं भी हँकाई के शिकार में शेर के लिए कई बार धरती पर ही खड़ा रहा हूँ। परंतु शेर ऐसी स्थिति में कभी नहीं मिला। मैं मन में अवश्य यह मानता रहा हूँ कि शेर न निकले तो बहुत अच्छा, पर निकलता तो शायद बंदूक चलाता - फिर जो कुछ होता।
जानवरों की खाल या सिर को स्मरण के हेतु रक्षित रखने के लिए खाल को साफ करवाकर धरती पर फैला देना चाहिए। खाल सिकुड़ने न पावे, इसके लिए उसके सिरों पर छोटी-छोटी खूँटियों का गाड़ देना अच्छा है। फिर बारीक पिसा हुआ नमक मलकर खाल को सूखा लिया जाय। कुछ लोग फिटकरी काम में लाते हैं। परंतु गाँवों में हर जगह फिटकरी प्राप्त नहीं होती। नमक सुलभ है और अच्छा भी है।
इसके बाद खाल को किसी कारीगर के हाथ में दे देना ठीक होगा। इस प्रकार की कारीगरी करनेवाली कई कंपनियों बंबई, मद्रास इत्यादि में हैं; परंतु बड़े खर्च का नखरा राजा-रईसों के लिए है।
जिस महल के कमरे की सजावट का ऊपर वर्णन किया गया है, उसमें एक लाख रुपये से अधिक खर्च हो गया होगा। उस कमरे में घुसते ही सौंदर्य कम और बीभत्स अधिक दिखलाई पड़ता है।
समाप्त

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