सआदत हसन मंटो की कहानी- 'टोबा टेक सिंह'.

                            सआदत हसन मंटो की कहानी- 'टोबा टेक सिंह'.

उर्दू लेखक सआदत हसन मंटो (11 मई, 1912 – 18 जनवरी, 1955) 


बँटवारे के दो-तीन साल बाद पाकिस्तान और हिन्‍दुस्तान की हुकूमतों को ख्याल आया कि अख्‍लाकी कैदियों की तरह पागलों का भी तबादला होना चाहिए, यानी जो मुसलमान  पागल हिन्‍दुस्तान के पागलख़ानों में हैं, उन्हें पाकिस्तान पहुँचा दिया जाए और जो हिन्‍दू और सिख पाकिस्तान के पागलख़ानों में हैं, उन्हें हिन्‍दुस्तान के हवाले कर दिया जाए।
मालूम नहीं, यह बात माक़ूल थी या  ग़ैर-माक़ूल, बहरहाल दानिशमन्‍दों के फ़ैसले के मुताबिक़ इधर-उधर ऊँची सतह की कान्फ्रेंसें हुईं, और बिलआख़िर एक दिन पागलों के तबादले के लिए एक दिन मुकर्रर हो गया।
अच्छी तरह छानबीन की गई- वे मुसलमान पागल जिनके लवाहक़ीन हिन्‍दुस्तान में ही में थे, वहीं रहने दिए गए,  बाक़ी जो बचे, उनको सरहद पर रवाना कर दिया गया। पाकिस्‍तान से चूँकि क़रीब-क़रीब तमाम हिन्‍दू-सिख जा चुके थे,  इसलिए किसी को रखने-रखाने का सवाल ही न पैदा हुआ, जितने हिन्‍दू-सिख पागल थे, सबके-सब पुलिस की हिफ़ाज़त में बॉर्डर पर पहुंचा दिए गए।
उधर का मालूम नहीं लेकिन इधर लाहौर के पागलख़ाने में जब इस तबादले की ख़बर पहुँची तो बड़ी दिलचस्‍प चेमेगोइयॉं होने लगीं।
एक मुसलमान पागल जो बारह बरस से हर रोज़ बाक़ायदगी के साथ ‘ज़मींदार’ पढ़ता था, उससे जब उसके एक दोस्‍त ने पूछा, ‘‘मोलबी साब, यह पाकिस्‍तान क्‍या होता है…?” तो उसने  बड़े गौरो-फ़िक्र के बाद जवाब दिया, ‘‘हिन्‍दुस्‍तान में एक ऐसी जगह है जहां  उस्तरे बनते हैं !” यह जवाब सुनकर उस का दोस्त मुतमइन हो गया।
इसी तरह एक सिख पागल ने एक दूसरे सिख पागल से पूछा, “सरदार जी हमें हिन्‍दुस्‍तान  क्‍यों भेजा जा रहा है… हमें तो वहॉं की बोली नहीं आती…।” दूसरा मुसकराया, ‘‘मुझे तो हिन्‍दुस्‍तानी बोली आती है, हिन्‍दुस्‍तानी बड़े शैतानी आकड़ आकड़ फिरते हैं…।”
एक दिन नहाते-नहाते एक मुसलमान पागल ने ‘पाकिस्तान जिंदाबाद’ का नारा इस ज़ोर से बुलंद किया कि फर्श पर फिसल कर गिरा और बेहोश हो गया ।
बाज़ पागल ऐसे भी थे जो पागल नहीं थे, उनमें अक्सरीयत ऐसे क़ातिलों की थी जिनके रिश्तेदारों ने अफसरों को दे दिला कर पागलख़ाने भिजवा दिया था  कि वह फाँसी के फंदे से बच जाएँ, यह कुछ-कुछ समझते थे कि हिन्‍दुस्तान क्यों तक्‍सीम हुआ है और यह पाकिस्तान क्या है, लेकिन सही वाक़िआत से यह भी  बेख़बर थे। अख़बारों से उन्‍हें कुछ पता नहीं चलता था और पहरेदार सिपाही अनपढ़ और जाहिल थे, जिनकी गुफ्तुगू से भी वह कोई नतीजा बरामद नहीं कर सकते थे। उनको सिर्फ़ इतना मालूम था कि एक आदमी मोहम्मद अली जिन्नाह है जिसको कायदे-आजम कहते हैं, उसने मुसलमानों के लिए एक अलहदा मुल्क बनाया है जिसका नाम पाकिस्‍तान है। यह कहां हैं,  इसका महले-वकू  क्या है, उसके मुताल्लिक़ वह कुछ नहीं जानते थे- यही वजह है कि वह सब पागल जिनका दिमाग़ पूरी तरह माऊफ़ नहीं हुआ था, इस मखमसे में गिरफ़्तार थे कि वह पाकिस्तान में हैं या हिन्‍दुस्तान में, अगर हिन्‍दुस्तान में हैं तो पाकिस्तान कहां है, अगर पाकिस्तान में हैं तो यह कैसे हो सकता है कि वह  कुछ अर्से पहले यहीं रहते हुए भी हिन्‍दुस्तान में थे।
एक पागल तो हिन्‍दुस्तान और पाकिस्तान, पाकिस्‍तान और हिन्‍दुस्तान के चक्कर में कुछ ऐसा गिरफ़्तार हुआ कि और ज्‍यादा पागल हो गया। झाड़ू देते-देते वह एक दिन दरख़्त पर चढ़ गया और टहने पर बैठ कर दो घंटे मुसलसल तकरीर करता रहा, जो पाकिस्तान और हिन्‍दुस्तान के नाज़ुक मसले पर थी… सिपाहियों ने जब उसे  नीचे उतरने को कहा तो वह और ऊपर चढ़ गया। जब उसे डराया-धमकाया गया तो उसने कहा, ‘‘मैं हिन्‍दुस्तान में रहना चाहता हूँ न पाकिस्तान में… मैं इस दरख्‍त  ही पर रहूँगा।” बड़ी  देर के बाद जब उसका दौरा सर्द पड़ा तो वह नीचे उतरा और अपने हिन्दू-सिख दोस्तों से गले मिल-मिलकर रोने लगा-  इस ख्याल से उसका दिल भर आया था कि वह उसे छोड़कर हिन्‍दुस्तान चले जाएँगे।
एक एम.एस-सी पास रेडियो इन्जीनियर में, जो मुसलमान था और दूसरे पागलों से बिल्कुल अलग-थलग बाग़ की एक ख़ास रविश पर सारा दिन ख़ामोश टहलता रहता था, यह तब्‍दीली नमूदार हुई कि उसने अपने तमाम कपड़े उतार कर  दफेदार के हवाले कर दिए और नंग-धड़ंग सारे बाग़ में चलना-फिरना शुरू` कर दिया।
चिंयौट के एक मोटे मुसलमान पागल ने, जो मुस्लिम लीग का सरगर्म कारकुन रह चुका था और दिन में पन्द्रह-सोलह मर्तबा नहाया करता था, यकलख्‍त यह आदत तर्क कर दी- उसका नाम मोहम्मद अली था, चुनांचे उसने एक दिन अपने जंगले में ऐलान कर दिया कि वह कायदे-आजम मोहम्मद अली जिन्नाह है,  उसकी देखा-देखी एक सिख पागल मास्टर तारा सिंह बन गया- इससे पहले कि ख़ून-ख़राबा हो जाए, दोनों को ख़तरनाक पागल क़रार दे कर अलहदा-अलहदा बंद कर दिया गया।
लाहौर का एक नौजवान हिन्‍दू वकील मुहब्बत में नाकाम होकर पागल हो गया था, जब उसने सुना कि अमृतसर हिन्‍दुस्तान में चला गया है तो उसे बहुत  दुख हुआ। अमृतसर की एक हिन्दू लड़्‌की से उसे मुहब्बत हो गई थी जिसने उसे ठुकरा दिया था मगर दीवानगी की हालत में भी वह उस लड़की को नहीं भूला था- वह उन तमाम हिन्दू और मुस्लिम लीडरों को गालियाँ देता था  जिन्होंने मिल-मिलाकर हिन्‍दुस्तान के दो टुकड़े कर दिए, और उसकी महबूबा हिन्‍दुस्तानी बन गई है और वह पाकिस्तानी।… जब तबादले की बात शुरू` हुई तो उस वकील को कई पागलों ने  समझाया कि वह दिल बुरा न करे… उसे हिन्‍दुस्तान भेज दिया जाएगा, उसी हिन्‍दुस्तान में जहां उस की महबूबा रहती है- मगर वह लाहौर छोड़ना नहीं चाहता था, उसका ख्याल था कि अमृतसर में उसकी प्रेक्टिस नहीं चलेगी।
यूरोपियन वार्ड में दो ऐंग्लो-इन्डियन पागल थे। उनको जब मालूम हुआ कि हिन्‍दुस्तान को आज़ाद करके अंग्रेज चले गए हैं तो उनको बहुत सदमा हुआ, वह छुप-छुपकर घंटों आपस में इस अहम मसले पर गुफ्तुगू करते रहते कि पागलख़ाने में उनकी हैसियत किस क़िस्म की होगी, यूरोपियन वार्ड रहेगा या उड़ा दिया जाएगा, ब्रेक-फ़ास्ट मिला करेगा या नहीं, क्या उन्हें डबल रोटी के बजाए ब्‍लडी इन्डियन चपाटी तो ज़हर माहर नहीं करना पड़ेगी ?
एक सिख था जिस को पागलख़ाने में दाख़िल हुए पन्द्रह बरस हो चुके थे। हर वक़्त उसकी ज़बान से यह अजीबो-ग़रीब अल्फ़ाज़ सुनने में आते थे-  ‘‘औपड़ दि गड़ गड़ दि अनैक्स दि बेध्यानाँ दि मुंग दि दाल आफ़ दी लालटेन….।” वह दिन को सोता  था न रात को। पहरेदारों का यह कहना था कि पन्द्रह बरस के तवील अर्से  में वह एक लहजे़ के लिए भी नहीं सोया, वह लेटता भी नहीं था, अलबत्ता कभी-कभी किसी दीवार के साथ टेक लगा लेता था- हर वक्‍त खड़े रहने से उसके पांव सूज गए थे और पिंडलियॉं भी फूल गई थीं, मगर जिस्मानी तकलीफ़ के बावजूद वह लेट कर आराम  नहीं करता था।
हिन्‍दुस्तान, पाकिस्तान और पागलों के तबादले के मुताल्लिक जब कभी पागलख़ाने में गुफ्तुगू होती थी तो वह गौर से सुनता था, कोई उससे पूछता कि उसका क्या ख्याल है तो वह बड़ी संजीदगी से जवाब देता, ‘‘औपड़ दि गड़ गड़ दि अनैक्स दि बेध्यानाँ दि मुंग दि दाल आफ़ दी पाकिस्तान गवर्नमेंट….!” लेकिन बाद में  ‘आफ़ दि पाकिस्तान गवर्नमेंट’ की जगह ‘आफ़ दि टोबा टेक सिंह गवर्नमेंट’ ने ले ली, और उसने दूसरे पागलों से पूछ्ना शुरू किया कि टोबा टेक सिंह कहां है, जहां का वह रहने वाला है। किसी को भी मालूम नहीं था कि टोबा टेक सिंह पाकिस्तान में है या हिन्‍दुस्‍तान में, जो बताने की कोशिश करते थे वह खुद इस उलझाव में गिरफ़्तार हो जाते थे कि सियालकोट पहले हिन्‍दुस्‍तान में होता था, पर अब सुना है कि पाकिस्तान में है… क्या पता है कि लाहौर जो अब पाकिस्तान में है, कल हिन्‍दुस्‍तान में  चला जाए… या सारा हिन्‍दुस्‍तान ही पाकिस्तान बन जाए… और यह भी कौन सीने पर हाथ रख कर कह सकता था कि हिन्‍दुस्‍तान और पाकिस्तान, दोनों किसी दिन सिरे से  गायब ही हो जाएँ…!
इस सिख पागल के केस छिदरे होकर बहुत मुख़्तसर रह गए थे,  चूंकि बहुत कम नहाता था इसलिए दाढ़ी और सर के बाल आपस में जम गए थे जिसके बायस उसकी शक्ल बड़ी भयानक हो गई थी, मगर आदमी बे-ज़रर था- पन्द्रह बरसों में उसने कभी किसी से झगड़ा-फ़साद नहीं किया था। पागलख़ाने के जो पुराने मुलाज़िम थे, वह उसके मुताल्लिक इतना जानते थे कि टोबा टेक सिंह में  उसकी कई ज़मीनें थीं, अच्छा खाता-पीता ज़मींदार था कि अचानक दिमाग़ उलट गया। उसके रिश्तेदार लोहे की मोटी-मोटी जंजीरों में बांधकर लाए और पागलख़ाने में दाख़िल करा गए।
महीने में एक बार मुलाक़ात के लिए यह लोग आते थे और उसकी ख़ैर-ख़ैरियत दरयाफ्त करके चले जाते थे, एक मुद्दत तक यह सिलसिला जारी रहा, पर जब पाकिस्तान, हिन्‍दुस्‍तान की गड़बड़ शुरू हुई तो उनका आना-जाना बन्द हो गया।
उसका नाम बिशन सिंह था मगर सब उसे टोबा टेक सिंह  कहते थे। उसको यह कत्‍अन मालूम नहीं था कि दिन कौन-सा है,  महीना कौन-सा है, या कितने साल बीत चुके हैं, लेकिन हर महीने जब उसके अज़ीज़ो-अक़ारिब उससे मिलने के लिए आने के करीब होते थे तो उसे अपने आप पता चल जाता था, चुनांचे वह दफेदार से कहता कि उसकी मुलाक़ात आ रही है। उस दिन वह अच्छी तरह नहाता, बदन पर ख़ूब साबुन घिसता और बालों में तेल डालकर कंघा करता। अपने वह कपड़े जो वह कभी  इस्‍तेमाल नहीं करता था, निकलवाकर पहनता और यूं सज-बनकर मिलनेवालों के पास  जाता। वह उससे कुछ पूछ्ते तो वह ख़ामोश रहता या कभी-कभार ‘औपड़ दि गड़ गड़ दि अनैक्स दि बेध्यानाँ दि मुंग दि दाल आफ़ दी लालटेन…’ कह देता।
उसकी एक लड़की थी जो हर महीने एक उंगली बढ़ती-बढ़ती पन्द्रह बरसों में  जवान हो गई थी। बिशन सिंह‍ उसको पहचानता ही नहीं था- वह बच्ची थी जब भी अपने बाप को देखकर रोती थी, जवान हुई तब भी उसकी आंखों से आंसू बहते थे।
पाकिस्तान और हिन्‍दुस्‍तान का क़िस्सा शुरू  हुआ तो उसने  दूसरे पागलों से पूछ्ना शुरू  किया कि टोबा टेक सिंह कहां है,  जब  उसे इत्‍मीनानबख्‍श जवाब न मिला तो उस की कुरेद दिन-ब-दिन बढ़ती गई। अब मुलाक़ात भी नहीं आती थी, पहले तो उसे अपने आप पता चल जाता था कि मिलने  वाले आ रहे हैं,  पर अब जैसे उसके दिल की आवाज़ भी बन्द हो गई थी जो उसे  उनकी आमद की ख़बर दे दिया करती थी- उसकी बड़ी ख़्वाहिश थी कि वह लोग आएँ जो उससे हमदर्दी का इज़हार करते थे और उसके लिए फल, मिठाइयाँ और कपड़े लाते थे। वह आएँ तो वह उनसे पूछे कि टोबा टेक सिंह कहां है… वह उसे यक़ीनन बता देंगे कि  पाकिस्तान में है या हिन्‍दुस्‍तान में- उसका ख्याल था कि वह टोबा  टेक सिंह ही से आते हैं, जहां उसकी ज़मीनें हैं।
पागलख़ाने में एक पागल ऐसा भी था जो खुद को ख़ुदा कहता था। उससे जब एक  रोज़ बिशन सिंह ने पूछा कि टोबा टेक सिंह पाकिस्तान में है या हिन्‍दुस्‍तान  में  तो उसने हस्‍बे-आदत कहक‍हा लगाया और कहा “वह पाकिस्तान में है न  हिन्‍दुस्‍तान में,  इसलिए कि हमने अभी तक हुक्म नहीं दिया…।’’
बिशन सिंह ने इस ख़ुदा से कई मर्तबा बड़ी मिन्नत-समाजत से कहा कि वह हुक्‍म दे दे ताकि झंझट ख़त्म हो, मगर खुदा बहुत मसरूफ़ था, इसलिए कि  उसे और बे-शुमार हुक्म देने थे।
एक दिन तंग आकर बिशन सिंह खुदा पर बरस पड़ा, ‘औपड़ दि गड़ गड़ दि अनैक्स दि बेध्यानाँ दि मुंग दि दाल आफ़ वाहे गुरु जी दा  ख़ालसा एंड वाहे गुरु जी दि फ़तह…।’ इसका शायद मतलब था कि तुम मुसलमानों के ख़ुदा हो,  सिखों के ख़ुदा होते तो ज़रूर मेरी सुनते।
तबादले से कुछ दिन पहले टोबा टेक सिंह का एक मुसलमान जो बिशन सिंह का दोस्त था, मुलाक़ात के लिए आया। मुसलमान दोस्‍त पहले कभी नहीं आया था। जब बिशन सिं‍ह ने उसे देखा तो एक तरफ़ हट गया, फिर वापस जाने लगा, मगर सिपाहियों  ने उसे रोका, ‘‘यह तुमसे मिलने आया है… तुम्हारा दोस्त फ़ज़लदीन है…।’’
बिशन सिंह ने फ़ज़लदीन को एक नज़र देखा और कुछ बड़बड़ाने लगा। फ़ज़लदीन ने आगे बढ़कर उसके कन्धे पर हाथ रखा, ‘‘मैं बहुत दिनों से सोच रहा था कि तुमसे मिलूं लेकिन फ़ुरसत ही न मिली… तुम्हारे सब आदमी ख़ैरियत से हिन्‍दुस्‍तान चले गए थे… मुझसे जितनी मदद हो सकी, मैंने की…  तुम्‍हारी  बेटी रूपकौर….’’ वह कहते-कहते रुक गया।
बिशन सिंह कुछ याद करने लगा, ‘‘बेटी रूपकौर….” _
फ़ज़लदीन ने रुक-रुककर कहां, ‘‘हां… वह… वह भी ठीक-ठाक है… उनके साथ ही चली गई थी…।’’
बिशन सिंह ख़ामोश रहा।
फ़ज़लदीन ने कहना शुरू  किया,  ‘‘उन्‍होंने मुझसे कहा था कि तुम्हारी ख़ैर-ख़ैरियत पूछ्ता रहूं… अब मैंने सुना है कि तुम  हिन्‍दुस्‍तान जा रहे हो…  भाई बलबीर सिंह और भाई वधावा सिंह से मेरा सलाम कहना और बहन अमृतकौर से भी… भाई बलबीर से कहना कि फ़ज़लदीन  राज़ीखुशी है… दो भूरी भैंसें जो वह छोड़ गए थे,  उनमें से एक ने कट्‌टा दिया है… दूसरी के कट्‌टी हुई थी, पर वह छह दिन की होके मर गई… और… मेरे लायक़ जो ख़िद्‌मत हो,  कहना,  मैं हर वक़्त तैयार हूं…  और यह तुम्‍हारे लिए थोड़े-से मरोंडे लाया हूं…।’’
बिशन सिंह ने मरोंडों की पोटली लेकर पास खड़े सिपाही के हवाले कर दी और फ़ज़लदीन से पूछा, “टोबा टेक सिंह कहां है… ?”
फ़ज़लदीन ने क़दरे हैरत से कहा, ‘‘कहां हैं…? वहीं है, जहां था…।’’
बिशन सिंह ने फिर पूछा, ‘‘पाकिस्तान में या हिन्‍दुस्‍तान में ?’’
‘‘हिन्‍दुस्‍तान में… नहीं, नहीं पाकिस्तान में…!” फ़ज़लदीन बौखला-सा गया।
‘‘बिशन सिंह बड़बड़ाता हुआ चला गया-  ‘‘औपड़ दि गड़ गड़ दि अनैक्स दि बेध्यानाँ दि मुंग दि दाल आफ़ दी पाकिस्तान एंड  हिन्‍दुस्‍तान आफ़ दी दुर फिटे मुंह…!’’
तबादले की तैयारियां मुकम्मल हो चुकी थीं, इधर से उधर और उधर से इधर आनेवाले पागलों की फ़ेहरिस्तें पहुंच चुकी थीं और तबादले का दिन भी मुक़र्रर हो चुका था।
सख़्त सर्दियां थीं जब लाहौर के पागलख़ाने से हिन्‍दू-सिख पागलों से भरी हुई लारियां पुलिस के मुहाफ़िज़ दस्ते के साथ रवाना हुईं,  मुताल्लिका अफ़सर भी हमराह थे- वागह के बार्डर पर तरफ़ैन के सुपरिंटेंडेंट एक-दूसरे से मिले और इब्तिदाई कारवाई ख़त्म होने के बाद तबादला शुरू` हो गया,  जो रातभर जारी रहा।
पागलों को लारियों से निकालना और दूसरे अफ़सरों के हवाले करना बड़ा कठिन काम था, बाज़ तो बाहर निकलते ही नहीं थे। जो निकलने पर रज़ामन्द होते थे, उनको संभालना मुश्किल हो जाता था, क्योंकि वह इधर-उधर भाग उठते थे। जो नंगे थे, उनको कपडे़ पहनाए जाते तो वह उन्‍हें फाड़कर अपने तन से जुदा कर देते- कोई गालियां बक रहा है… कोई गा रहा है… कुछ आपस में झगड़  रहे हैं… कुछ  रो रहे हैं, बिलख रहे हैं।  कान पड़ी आवाज़ सुनाई नहीं देती थी- पागल औरतों का शोरो-गोग़ा अलग था, और सर्दी इतनी कड़ाके की थी कि दांत से  दांत बज रहे थे ।
पागलों की अक्‍सरीयत इस तबादले के हक़ में नहीं थी। इसलिए कि उनकी समझ में  नहीं आ रहा था कि उन्‍हें अपनी जगह से उखाड़कर कहां फेंका जा रहा है। वह चन्द  जो कुछ सोच-समझ सकते थे, ‘पाकिस्तान जिंदाबाद’  और ‘पाकिस्तान मुर्दाबाद’  के नारे लगा रहे थे। दो-तीन मर्तबा फ़साद होते होते बचा, क्योंकि बाज़  मुसलमानों ओर सिखों को यह नारे सुन कर तेश आ गया था।
जब बिशन सिंह की बारी आई और वाग‍ह के उस पार का मुताल्लिक अफ़सर उसका नाम रजिस्टर में दर्ज करने लगा तो उसने पूछा, ‘‘टोबा टेक सिंह कहां  है… पाकिस्तान में या हिन्‍दुस्‍तान में ?’’
मुताल्लिक अफ़सर हँसा, ‘‘ पाकिस्तान में…!’’
यह सुनकर बिशन सिंह उछलकर एक तरफ़ हटा और दौड़कर अपने बाक़ीमांदा साथियों के पास पहुंच गया।
पाकिस्तानी सिपाहियों ने उसे पकड़  लिया और दूसरी तरफ़ ले जाने लगे,  मगर उसने चलने से इनकार कर दिया, ‘‘टोबा  टेक सिंह यहां है… !’’ और ज़ोर-ज़ोर से चिल्लाने लगा,  ‘‘औपड़ दि गड़ गड़ दि अनैक्स दि बेध्यानाँ दि मुंग दि दाल आफ़ दी टोबा टेक सिंह एंड पाकिस्तान…!’’
उसे बहुत समझाया गया कि देखो, अब टोबा टेक सिंह हिन्‍दुस्‍तान में चला गया है, अगर नहीं गया है तो उसे फ़ौरन वहां भेज दिया जाएगा, मगर वह न माना। जब उसको ज़बर्दस्ती दूसरी तरफ़ ले जाने की कोशिश की गई तो वह दरमियान में एक जगह  इस अन्दाज़ में अपनी सूजी हुई टांगों पर खड़ा हो गया, जैसे अब उसे कोई ताक़त  नहीं हिला सकेगी। आदमी चूंकि बे-ज़रर था, इसलिए उससे मज़ीद ज़बर्दस्ती न की गई,  उसको वहीं खड़ा रह्‌ने दिया गया और तबादले का बाक़ी काम होता रहा।
सूरज निकलने से पहले साकित व सामित बिशन सिंह के हलक से एक फ़लक-शिगाफ़ चीख़ निकली।
इधर-उधर से कई अफ़सर दौड़े आए और देखा कि वह आदमी  जो पन्द्रह बरस तक दिन-रात अपनी टांगों पर खड़ा रहा था, औंधे मुंह लेटा है-  उधर ख़ारदार तारों के पीछे हिन्‍दुस्‍तान था, इधर वैसे ही तारों के पीछे  पाकिस्तान, दरमियान में ज़मीन के उस टुकड़े पर जिसका कोई नाम नहीं था, टोबा टेक सिंह पड़ा था।

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