भात का कर्ज-लघु कथा
उमेश मोहन धवन
अरे कौन है वहाँ "रात के अँधेरे में बर्तनों की आवाज से जानकी की नींद खुल गयी.
छत के रास्ते चोरी के इरादे से घुसा रामू भी घबरा गया. पर थोड़ी हिम्मत जुटाकर बोला "कुछ नहीं अम्मा. शहर गया था. लौटने में रात अधिक हो गयी . अगर तुम्हें ऐतराज न हो तो सुबह चला जाऊँगा." "नहीं बेटा मुझ बुढ़िया को भला क्या ऐतराज होगा. कही़ भी लेट जा. रामू एक कोने में लेट गया.
पर उसकी आँखों में नींद न थी. वह जल्दी से अपना काम करके भाग जाना चाहता था. एक छोटी टार्च जलाकर वह अलमारियों में कुछ ढूंढने लगा.
रोशनी तथा आवाज से जानकी जाग गयी. "क्या ढूंढ रहा है रे. अरे मैं भी कितनी मूरख हूँ. तू भूखा होगा. मैने तुझे खाने को भी नहीं पूछा. क्या करूँ अकेली जो हूँ बेटा. बुढिया उठी और दिन का बचा भात उसके आगे रख दिया " अब यही बचा है तेरे नसीब का. शुक्र है आज तो यह मिल भी गया वरना कई बार तो पेट बाँधकर ही सोना पड़ता है.
भीख मांगकर या चोरी करने से तो मर जाना ज्यादा अच्छा. पर बेटा बाहर किसी से न कहना कि अम्मा ने बासी भात खिला दिया वरना बड़ी बदनामी होगी. " "नहीं कहूँगा. मैं तो देवी अन्नपूर्णा के घर से दिव्य भोज करके जा रहा हूँ. ये भात उधार रहा मुझ पर अम्मा.
एक दिन जरूर लौटूँगा तेरा बेटा बनकर. पर पहले बेटा कहलाने लायक तो बन जाऊं. रात को छत के रास्ते घुसने वाला रामू सुबह भात का कर्ज उतारने दरवाजे से बाहर निकल रहा था
अरे कौन है वहाँ "रात के अँधेरे में बर्तनों की आवाज से जानकी की नींद खुल गयी.
छत के रास्ते चोरी के इरादे से घुसा रामू भी घबरा गया. पर थोड़ी हिम्मत जुटाकर बोला "कुछ नहीं अम्मा. शहर गया था. लौटने में रात अधिक हो गयी . अगर तुम्हें ऐतराज न हो तो सुबह चला जाऊँगा." "नहीं बेटा मुझ बुढ़िया को भला क्या ऐतराज होगा. कही़ भी लेट जा. रामू एक कोने में लेट गया.
पर उसकी आँखों में नींद न थी. वह जल्दी से अपना काम करके भाग जाना चाहता था. एक छोटी टार्च जलाकर वह अलमारियों में कुछ ढूंढने लगा.
रोशनी तथा आवाज से जानकी जाग गयी. "क्या ढूंढ रहा है रे. अरे मैं भी कितनी मूरख हूँ. तू भूखा होगा. मैने तुझे खाने को भी नहीं पूछा. क्या करूँ अकेली जो हूँ बेटा. बुढिया उठी और दिन का बचा भात उसके आगे रख दिया " अब यही बचा है तेरे नसीब का. शुक्र है आज तो यह मिल भी गया वरना कई बार तो पेट बाँधकर ही सोना पड़ता है.
भीख मांगकर या चोरी करने से तो मर जाना ज्यादा अच्छा. पर बेटा बाहर किसी से न कहना कि अम्मा ने बासी भात खिला दिया वरना बड़ी बदनामी होगी. " "नहीं कहूँगा. मैं तो देवी अन्नपूर्णा के घर से दिव्य भोज करके जा रहा हूँ. ये भात उधार रहा मुझ पर अम्मा.
एक दिन जरूर लौटूँगा तेरा बेटा बनकर. पर पहले बेटा कहलाने लायक तो बन जाऊं. रात को छत के रास्ते घुसने वाला रामू सुबह भात का कर्ज उतारने दरवाजे से बाहर निकल रहा था
एक माँ चोर का हृदय भी परिवर्तित कर सकती है ..... सुंदर लघु कथा
ReplyDeleteबहुत मार्मिक कहानी ...
ReplyDeleteVery touching story.
ReplyDeletePlease visit my blog http://Unwarart.com read those stories & article & give your comments.
vinnie
मन को छू जाती है ये लघु कहानी ... कितना कुछ कहती हुई ...
ReplyDeleteबहुत मर्मस्पर्शी रचना...
ReplyDelete