दूसरे का पचड़ा !


कल शाम को हरवंश जी पार्क में मिले तो मैंने देखा उनके माथे पर चोट लगी हुई है। मैंने जब चोट के बारे में पूछा तो वे बोले, " कल बैंक से पैसे लेकर बस से घर लौट रहा था तो बस में दो लड़के चढ़े और वे मेरा बैग छीन कर भाग गए। उस छीना - झपटी में मेरा सर सामने की सीट के हैंडल से जा टकराया। "
उन्हें चुप होते देख मैंने पूछा," तो वे बैग ले गए ?"
वे गुस्से में बोले, " आप भी शर्मा जी बेकार का सवाल पूछ रहे हैं। भरी बस में वे मुझे लूट कर ले गए लेकिन किसी ने भी मेरी मदद नहीं की। इसमें ऐसे लोग भी जरूर रहे होंगे जो जब - तब बढ़ते अपराधों को लेकर जंतर - मंतर पर होने वाले प्रदर्शनों में हिस्सा लेते हैं। खैर, बाद में जरूर पूछ रहे थे कि बैग में क्या कुछ था ? साले जले पर नमक छिड़क रहे थे। "
हरवंश जी की बात सुनकर मुझे कोई तीन महीने पहले की वह शाम याद आ गई जब मैं उनके घर किसी काम से गया था। उस दिन किसी प्रसंग को लेकर वे अपने जवान बेटे राकेश को समझा रहे थे," किसी दूसरे के पचड़े में पड़ने की कोई जरूरत नहीं। बहुत बुरा वक़्त आ गया है। सीधे ऑफिस जाया करो और सीधे घर आया करो। समझदार इंसान बनो।"
मैं सोच रहा था कि जिस बस में हरवंश जी लुटे हैं, उसमें उस वक़्त सभी " राकेश " जैसे समझदार इंसान रहे होंगे।

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