भगवान बनके आई वो भूतनी
बात बहुत पहले की है. एक बार रमेसर काका अपने बेटे से मिलने लखनऊ गए हुए थे. वे शाम को लगभग 4 बजे लखनऊ से ट्रेन पकड़कर मकरेड़ा के लिए रवाना हुए. मकरेड़ा पहुँचने में रात के करीब 10 बज गए. मकरेड़ा पहुँचने के बाद उन्होंने सोचा कि शायद इस समय टिकरहिया जाने के लिए कोई गाड़ी मिल जाए. टिकरहिया और मकरेड़ा के बीच मात्र 6-7 किमी की दूरी थी और इस रूट पर एक-दो पैसेंजर गाड़ियाँ दौड़ा करती थीं। पर मकरेड़ा से टिकरहिया होकर आगे जाने वाली रातवाली पैसेंजर निकल चुकी थी. अब रमेसर काका क्या करें, पहले तो उन्होंने वह रात स्टेशन पर ही गुजारने की सोची पर फिर पता नहीं उन्हें क्या सूझा कि अपना झोला-झंटा उठाए और रेल की पटरी पकड़कर मकरेड़ा से टिकरहिया की ओर चल दिए. टिकरहिया में स्टेसन से थोड़ी ही दूर पर उन्होंने एक झोपड़ी डाल रखी थी और उसी में चाय-पकौड़ी आदि बेचा करते थे। रमेसर काका निडर होकर तेजी से पटरी के किनारे-किनारे आगे बढ़े चले जा रहे थे. उन्हें तो देर-सबेर, पैदल ही पटरियों से होकर इधर-उधर आने-जाने की आदत थी। अस्तु उस काली रात में भी वे तेजी से ऐसे बढ़े चले जा रहे थे जैसे दिन का प्रकाश हो. अभी रमेस...
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