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"एक पुड़िया जहर" ~~~~~~~~~~

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अमावस के गहन शाम की धुंधली वेला है, रात से ठीक पूर्व की। बड़ी मुश्किल से कुछ फर्लांग आगे तक ही दृष्टि जा पा रही है। सूर्य कब का डूब चुका है और अंधकार अपनी चादर फैलाने को आतातुर है। आसमान, जिसपर कभी भी कालिमा हावी हो सकती है, बड़ी ही निर्लज्जतापूर्वक निर्वस्त्र है और बेहद झीना-सा पीलापन लिये हुये है। कहीं-कहीं छिट-पुट लालिमा बिखरी हुई है। मानो किसी चित्रकार ने कागज के महीन से पीत-श्याम कैनवास पर कुछ बूँदें रक्त की छींट दी हों! या मानो काली आँखों के हल्के से पीलेपन के बीच कोई अभागा खून के आँसू रो रहा हो! आने वाले इस अंधकार के वशीभूत होकर विराट आसमान का नीलाभ-वर्ण भी उसका साथ छोड़ चुका है। क्षितिज पर यदा-कदा ध्वनिहीन बिजली चमक रही है। वातावरण में एक अजीब सी बेचैन कर देने वाली उमस व्याप्त है। पेड़ों पर इस वक्त नियमित चहचहाने वाले पंछी भी ना जाने किस अनजान भय से आक्रान्त होकर आज मूक हैं। मानो उनका शोर भी वातावरण की उसी शून्यता में समा गया हो! पेड़ भी काफी गुमसुम हैं... काफी स्थिर और अचल... एक-एक रेशा जड़ है आज! काफी दूर से २-४ कुत्तों के रोने की धीमी आवाजें आ रही हैं। बहुत दूर किसी...