रानी केतकी की कहानी (इंशा अल्ला खान)
![Image](https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEi-BhDi5U5_UTIa7WOwG-WLOEseS5EGh0WHKACKbTEVN9vMp-d7bNfAs9v96xCUDN2dqTSEQAUgDt4h9V52EcgaF0bP8zQqYv5eJOUxO1EeNULkchdMOVTd2iaALw0FKNPlEpWXgLK3YZ8/s1600/6184rani+ketki+ki+kahani+m.jpg)
यह वह कहानी है कि जिसमें हिंदी छुट। और न किसी बोली का मेल है न पुट।। सिर झुकाकर नाक रगड़ता हूँ उस अपने बनानेवाले के सामने जिसने हम सब को बनाया और बात में वह कर दिखाया कि जिसका भेद किसी ने न पाया। आतियाँ जातियाँ जो साँसें हैं, उसके बिन ध्यान यह सब फाँसे हैं। यह कल का पुतला जो अपने उस खेलाड़ी की सुध रक्खे तो खटाई में क्यों पड़े और कड़वा कसैला क्यों हो। उस फल की मिठाई चक्खे जो बड़े से बड़े अगलों ने चक्खी है। देखने को दो आँखें दीं और सुनने के दो कान। नाक भी सब में ऊँची कर दी मरतों को जी दान।। मिट्टी के बासन को इतनी सकत कहाँ जो अपने कुम्हार के करतब कुछ ताड़ सके। सच है, जो बनाया हुआ हो, सो अपने बनानेवालो को क्या सराहे और क्या कहे। यों जिसका जी चाहे, पड़ा बके। सिर से लगा पाँव तक जितने रोंगटे हैं, जो सबके सब बोल उठें और सराहा करें और उतने बरसों उसी ध्यान में रहें जितनी सारी नदियों में रेत और फूल फलियाँ खेत में हैं, तो भी कुछ न हो सके, कराहा करैं। इस सिर झुकाने के साथ ही दिन रात जपता हूँ उस अपने दाता के भेजे हुए प्यारे को जिसके लिये यों कहा है - जो तू न होता तो मैं कुछ न बनाता; और उसका चचेरा भा...